सुनामी चेतावनी का वैज्ञानिक पहलू

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वात की सफल वैज्ञानिक चेतावनी एवं प्रशासन द्वारा किये गये आपदा प्रबंधन के फलस्वरूप हुई न्यूनतम जनहानि ने एक बार पुनः यह प्रश्न उठाया है कि क्या भूकंप, सुनामी जैसी अन्य प्राकृतिक आपदाओं की भी इस तरह की वैज्ञानिक भविष्यवाणी संभव है? यदि हाँ तो कितने समय पहले और यदि नहीं, तो क्यों नहीं? यदि पुर्वानुमान नहीं कर सकते तो क्या कोई अन्य तरीका है नुकसान कम करने का? आईए जन साधारण से जुड़े इन प्रश्नों का वैज्ञानिक हल ढूँढने का प्रयास करते है।
जैसा कि सर्वाविदित है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस समय भूकंपो की भविष्यवाणी करना संभव नहीं है। भविष्यवाणी से हमारी मतलब है कि अमुक जगह पर अमुक परिणाम का भूकंप अमुक दिन या अमुक समय आयेगा। आपदा प्रबंधन के हिसाब से उपर्युक्त तरह ही अल्पकालिक भविष्यवाणी ही उपयोगी हो सकती है।
यद्यपी विश्व में कुछ जगहों पर कुछ भूकंपों से पहले ‘पी’ तथा ‘एस’ तरंगों के गति अनुपात में परिवर्तन, भूचुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन, धरती की विद्युत प्रतिरोधकता में परिवर्तन, कुओं के जलस्तर तथा उनमें मौजूद रेडान गैस की मात्रा मे परिवर्तन, पशु पक्षियों के व्यवहार में परिवर्तन जैसे कुछ निदान कारक अवश्य देखे गये हैं, परंतु इनमे से कोई भी कारक उसी जगह पर आनेवाले सभी भूकंपो या अन्य जगहों पर आने वाले भूकंपो पर खरा नहीं पाया गया है।
किसी क्षेत्र विशेष में पूर्व में आये भूकंपों के सांख्यिकीय विश्लेषण के आधार पर यह कहना तो संभव है कि उस क्षेत्र में आनेवाले दस, पचास या सौ सालों में अमुक परिमाण के भूकंप के आने की संभावना कितने प्रतिशत हैं, परंतु चेतावनी देने लायक पूर्वानुमान अभी तक संभव नहीं है। आँकड़ो के विश्लेषण पर आधारित इस प्रकार के पूर्वानुमान किसी क्षेत्र विशेष में महत्वपूर्ण परियोजनाओं की भूकंप प्रतिरोधी संरचना के लिये अत्यंत उपयोगी होते है। इन्हीं विश्लेषणों के आधार पर भूकंपीय क्षेत्र मानचित्र भी बनाया गया है, जिसका उपयोग सामान्य जन भूकंपरोधी भवन बनाने और इसके फलस्परूप नुकसान कम करने में कर सकते है।
भूकंप की भविष्यवाणी भले न की जा सकती हो परंतु भूकंप से उत्पन्न सुनामी की चेतावनी अवश्य दी जा सकती है। भारतीय भूभाग के पूर्वी तट के लिये आज की तकनीक का प्रयोग करके कम से कम दो या ढ़ाई घंटे पहले ऐसी चेतावनी देना संभव हो गया है। पश्चिमी तट के लिए यह समय लगभग एक घंटा हो सकता है। आइये देखे कैसे ?
सुनामी मुख्यतः समुद्र तल के नीचे जमीन में कम गहराई पर होने वाले बड़े भूकंपों, भूस्खलनों, ज्वालामुखियों आदि के कारण आती है। समुद्र के अंदर होने वाली इन घटनाओं के परिणाम और उत्केंद्र की सटीक जानकारी कुछ ही मिनटों में जमीन पर स्थित भूकंप मापी तंत्रो द्वारा प्राप्त कर ली जाती है।
जैसे ही यह पता चलता है कि भूकंप का केंद्र समुद्र के नीचे है और इसका परिणाम लगभग 7.5 माप से ज्यादा है तो इसकी सुनामी जनक क्षमता का अनुमान भूकंप की स्रोत प्रक्रिया के आंकलन से किया जा सकता है।
यहां यह बताना आवश्यक है कि समुद्र के नीचे आये सभी भूकंप सुनामी नहीं पैदा करते हैं, बल्कि केवल वही भूकंप सुनामी पैदा कर सकते हैं, जिनकी स्रोत प्रक्रिया इस प्रकार की होती है कि उसमे ऊर्ध्व विस्थापन की प्रधानता हो।
उदाहरण के लिए सुमात्रा क्षेत्र में आये परिमाण 1.1 माप के 26 दिसंबर 2008 के भूकंप ने पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया में भयानक सुनामी उत्पन्न की थी। परंतु उसी क्षेत्र में आये परिमाण 8.6 माप के 28 मार्च 2005 अथवा परिमाण 8.7 माप के 11 अप्रैल, 2012 के भूकंपां ने लगभग नगण्य सुनामी उत्पन्न की थी। इसका कारण था कि बाद के दोनों भूकंपों की स्रोत प्रक्रिया में क्षैतिज विस्थापन की प्रधानता थी।
वास्तव में गहरे समुद्र में सुनामी के उत्पन्न होने का कारण यही है कि, जिस क्षेत्र में समुद्र धरती की प्लेट दूसरी प्लेट के नीचे घुसती जाती है तो उस क्षेत्र में, जिसे सब्डक्शन जोन कहा जाता है, दोनों प्लेटों में जमा हुई अत्यधिक विकृति ऊर्जा के अचानक विमोचित होने पर ऊर्ध्व विस्थापन वाली स्रोत प्रक्रिया के भूकंप पैदा होते है।
भारतीय भूभाग के आसपास पूर्व में अंडमान, निकोबार, सुमात्रा सब्डक्शन क्षेत्र दो प्रमुख ऐसी जगहें हैं, जहां इस तरह के भूकंप पैदा हो सकते है। समुद्र के नीचे कुछ सेंटीमीटर से लेकर कुछ मीटर तक के आयाम वाले ऊर्ध्व विस्थापन के कारण पानी की सतह भी उसी अनुपात में विस्थापित हो जाती है। बाद में गुरूत्व के कारण विस्थापित हुआ पानी अपनी पूर्व स्थिति में आने का प्रयास करता है और बड़े आवर्त काल वाली लहरों को जन्म देता है जिन्हें ‘सुनामी’ कहते हैं। इसीलिए सुनामी तरंगों को गुरूत्वीय तरंगे भी कहा जाता है।
सुनामी की विभीषिका भूकंप द्वारा विस्थापित पानी के आयतन पर निर्भर होती है, जो भूकंप के परिमाण और ऊर्ध्व विस्थापन पर निर्भर करता है। गहरे समुद्र में एक से दो फीट की लगभग अद्रश्य सी यह लहरें बड़ी तेजी से (लगभग 700 कि.मी./घंटे गति से) तटों की ओर बढ़ती है। सुनामी लहरों की गति समुद्र की गहराई के वर्गमूल के सामानुपाती होती है और इनकी ऊंचाई गति के वर्गमूल के व्युत्क्रमानुपाती होती है। इसलिए जैसे जैसे सुनामी लहर तट की ओर बढ़ती है, इसकी गति कम होती जाती है, क्योंकि तट की ओर समुद्र की गहराई कम होती जाती है।
ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत के अनुसार तट की ओर गति में कमी के कारण लहर की ऊंचाई बढ़ती जाती है। भौतिकी विज्ञान में इसे शोलिंग प्रभाव कहते है। इस प्रकार गहरे समुद्र में उत्पन्न हुई एक से दो फीट ऊंची सुनामी लहर भी तट पर आते-आते विनाशकारी ऊंचाई प्राप्त कर लेती है। तट की समुद्र तल से औसत ऊंचाई के ऊपर आई लहर की ऊंचाई को ‘रनअप’ कहा जाता है तथा क्षैतिज दिशा में तट से जितनी दूर तक लहर जाती है उसे ‘इनडेशन’ कहा जाता है। सुनामी के ये दोनों प्राचल तट के पास की अन्तर्जलीय संरचना, लहर की दिशा के सापेक्ष तट की स्थिति तथा सुनामीजनक भूकंप के परिमाण के हिसाब से बहुत ज्यादा बदलते रहते हैं।
हवा आदि के कारण समुद्र की हमेशा उठने वाली सामान्य लहरों, सूर्य तथा चंद्रमा के गुरूत्वीय प्रभाव के कारण उठने वाली ज्वारीय लहरों तथा भूकंप के कारण उठने वाली सुनामी लहरों के बीच मुख्य अंतर, उनके आयाम और आवर्त काल का होता है।
कल्पना करें कि आप समुद्र तट पर खड़ें है। सामान्य लहरों का आयाम कुछ फीट और आवर्त काल 10 से 15 सेकंड होता है। इसलिए बार-बार यह आपके पास आयेगी और कुछ सेकंड में वापस चली जायेगी। इसके विपरीत ज्वारीय लहर का आवर्तकाल लगभग 12 घंटे का होता है, इसलिए तट पर महत्तम ऊंचाई तक पानी भरने में लगभग 3 घंटे (चौथाई आवर्त काल) का समय लगेगा। सुनामी लहरों का आवर्त काल लगभग एक घंटे का हो सकता है और तट के पास इसकी ऊंचाई कई मीटर तक हो सकती है, अतः तट पर पानी कुछ मिनटों में ही अपनी महत्तम ऊंचाई तक भर जायेगा।
भूकंप मापी यंत्रों के अलावा सुनामी की सटीक चेतावनी देने के लिए बॉटम प्रेशर रिकॉर्डर (बीपीआर), टाइड गेज तथा जीपीएस वॉइस का उपयोग किया जाता है। इनमें से टाइड गेज तट के पास लगाये जाते हैं, जबकि बीपीआर और जीपीएस वॉइस गहरे समुद्र में जब सुनामी लहर किसी बीपीआर के ऊपर से गुजरती है तो वह अपने ऊपर महसूस किये गये दाबान्तर की सूचना उपग्रह द्वारा तट पर स्थित मॉनिटरिंग केंद्र को भेज देता है जिससे पता चल जाता है कि सुनामी आ रही है। सुनामी उत्पन्न होने के स्थान के पास स्थित तटों पर लगे टाइड गेज के आंकड़ें सुदूर स्थित तटों पर सुनामी आगमन की चेतावनी देने के लिए उपयोगी होते है। ज्यादातर सुनामी प्रशांत महासागर में स्थित सर्कम पेसिफिक बेल्ट में आती है। जहां विश्व के लगभग 75 प्रतिशत भूकंपों का केन्द्र होता है। हिंद महासागर में उपस्थित अंडमान, निकोबार, सुमात्रा सब्डक्शन जोन तथा अरब सागर में कराची तट के पास स्थित मकरन सब्डक्शन जोन भारतीय भूभाग में सुनामी की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। विगत वर्षों में इन दो जगहों से भारत में सुनामी आ चुकी है। ऐतिहासिक काल से लेकर अब तक भारतीय भूभाग में आयी सुनामियॉं ज्यादातर अंडमान-निकोबार, सुमात्रा सब्डक्शन जोन के भूकंपो के कारण आती हैं, जो कि देश की पूर्वी तट रेखा से 1400 से 2400 किमी दूर है। सुनामी लहर की औसत गति 700 किमी/घंटे के हिसाब से पूर्वी तट तक आने में 2 से 3 घंटे का समय लगेगा, जबकि लगभग 12000 से 30000 किमी/घंटे की गति से चलकर भूकंपीय तरंगे कुछ मिनटों में ही भूकंप के बारे में पूरी जानकारी दे देती हैं। इसीलिए सुनामी की चेतावनी देने के लिए सबसे पहले भूकंप मापियों का ही प्रयोग किया जाता है।
बीपीआर, टाइड गेज आदि का प्रयोग बाद में चेतावनी की पुष्टि या नकारने के लिए किया जाता है। जहां तक अंडमान निकोबार द्वीप समूह के लिए सुनामी की चेतावनी देने का प्रश्न है, वह मुख्यतः भूकंपीय आंकड़ों के आधार पर ही देनी पड़ेगी क्योंकि सुमात्रा में उत्पन्न सुनामी का अंडमान निकोबार द्वीप समूह तक पहुंचने में 40 से 45 मिनट लगेंगे और तभी वहां लगे हुए टाइड गेज अपने आंकड़े जुटा पायेंगे। चेतावनी जारी होने के बाद इतने कम समय में सुनामी से बचाव एवं आपदा प्रबंधन के उपाय करना वास्तव में एक चुनौती है, पर असंभव नहीं।
चक्रवात और सुनामी की तरह भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा की चेतावनी देना, जनहानि कम करने के लिए, निश्चित तौर से बहुत लाभकारी हो सकता हैं। परंतु भवनों, सड़कों, पुलों आदि के नुकसान को कम करने के लिए तो सांख्यिकीय पूर्वानुमानों पर ही अमल करना पड़ेगा जिससे संपत्ति की हानि भी कम की जा सके।
जापान का उदाहरण हमारे सामने है जहां ज्यादातर भूकंपरोधी भवनों के बनने के कारण 11 मार्च, 2011 को 1.3 परिमाण के समुद्री भूकंप से भवनों के गिरने तथा उनमें दब कर मर जाने की खबरें नगण्य हैं। ज्यादातर वहां जान-माल, भवन एवं संपत्ति का नुकसान लगभग आधे घंटे बाद आयी सुनामी के कारण हुआ था। (साभार : वैज्ञानिक)
योगेन्द्र सिंह भदौरिया एवं फाल्गुनी राय