प्रदूषण से कम होती सांसें

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जैसे-जैसे शहर विकसित हो रहे हैं, हरियाली कम और कंक्रीट के जंगल बढ़ते जा रहे हैं। हर साल प्रदूषण के मामले में बढ़ोतरी हो रही है। नवंबर-दिसंबर माह में प्रदूषण की वजह से मौत के आंकड़े भी बढ़ जाते हैं। यदि हम अभी से नहीं चेते तो आने वाले कुछ सालों में साफ हवा में सांस लेने के लिए सिर्फ पहाड़ और जंगल ही बचे रह जाएंगे। प्रदूषण लगातार हमारी सांसें कम कर रहा है। नए पैदा होने वाले कई बच्चों पर इसका असर भी दिख रहा है। विश्व पर्यावरण दिवस पर हम सभी को कोई ऐसा प्रण लेना चाहिए जो आने वाली पीढ़ियों को साफ सुथरी हवा देने में मददगार हो सके।
विश्व पर्यावरण दिवस पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हेतु पूरे विश्व में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु वर्ष 1972 में की गई थी। इसे 5 जून से 16 जून तक संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन में चर्चा के बाद शुरू किया गया था। 5 जून 1974 को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया था।
हमारी धरती पर पिछले कुछ सालों में भूकंप, बाढ़, सूनामी जैसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। प्रकृति की इन आपदाओं में जान-माल का खूब नुकसान होता है। दरअसल, हमारी धरती के ईको-सिस्टम में आए बदलावों और तेजी से बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही ये सब हो रहा है।
पर्यावरण दिवस का इतिहास
1972 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानव पर्यावरण विषय पर संयुक्त राष्ट्र महासभा का आयोजन किया गया था। इसी चर्चा के दौरान विश्व पर्यावरण दिवस का सुझाव भी दिया गया और इसके दो साल बाद, 5 जून 1974 से इसे मनाना भी शुरू कर दिया गया। 1987 में इसके केंद्र को बदलते रहने का सुझाव सामने आया और उसके बाद से ही इसके आयोजन के लिए अलग अलग देशों को चुना जाता है। इसमें हर साल 143 से अधिक देश हिस्सा लेते हैं और इसमें कई सरकारी, सामाजिक और व्यवसायिक लोग पर्यावरण की सुरक्षा, समस्या आदि विषय पर बात करते हैं।
विश्व पर्यावरण दिवस को मनाने के लिए कवि अभय कुमार ने धरती पर एक गान लिखा था, जिसे 2013 में नई दिल्ली में पर्यावरण दिवस के दिन भारतीय सांस्कृतिक परिषद में आयोजित एक समारोह में भारत के तत्कालीन केंद्रीय मंत्रियों, कपिल सिब्बल और शशि थरूर ने इस गाने को पेश किया। हमारी धरती पर पिछले कुछ सालों में भूकंप, बाढ़, सूनामी जैसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। प्रकृति की इन आपदाओं में जान-माल का खूब नुकसान होता है। दरअसल, हमारी धरती के ईको-सिस्टम में आए बदलावों और तेजी से बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही ये सब हो रहा है।
वैज्ञानिकों ने इन आपदाओं के लिए हमारे प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध इस्तेमाल को जिम्मेदार ठहराया है। उनकी मानें तो आज हमारी धरती अपने भार से कहीं अधिक भार वहन कर रही है। अगर यही हाल रहा तो 2030 तक हमें रहने के लिए दूसरी धरती की जरूरत होगी।
कब शुरू हुआ
इस दिन की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र महासभा और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने 16 जून 1972 को स्टाकहोम में की थी। 5 जून 1973 को पहली बार विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया, जिसमें हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में पर्यावरण संरक्षण के मुद्दों पर विचार किया गया। 1974 के बाद से विश्व पर्यावरण दिवस का सम्मेलन अलग-अलग देशों में आयोजित किया जाने लगा। भारत में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 19 नवंबर 1986 में लागू किया गया। यूएनईपी हर साल पर्यावरण संरक्षण के अभियान को प्रभावशाली बनाने के लिए विशेष विषय (थीम) और नारा चुनता है। मेजबान देश(होस्ट कंट्री) में विभिन्न देशों के प्रतिनिधि हिस्सा लेते हैं और पर्यावरण के मुद्दों पर बातचीत और काम होता है।
क्या करते हैं इस दिन
5 जून को पूरी दुनिया में पर्यावरण से जुड़ी अनेक गतिविधियों का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष इस दिवस का मेजबान देश स्वीडन है एवं थीम ‘‘केवल एक पृथ्वी’’ रखी गई है। पर्यावरण सुरक्षा के उपायों को लागू करने के लिए हर उम्र के लोगों को प्रोत्साहित किया जाता है। पेड़-पौधे लगाना, साफ-सफाई अभियान, रीसाइकलिंग, सौर ऊर्जा, बायो गैस, बायो खाद, सीएनजी वाले वाहनों का इस्तेमाल, रेन वाटर हार्वेस्टिंग जैसी तकनीक अपनाने पर बल दिया जाता है। सड़क रैलियों, नुक्कड़ नाटकों या बैनरों से ही नहीं, एसएमएस, फेसबुक, ट्विटर, ईमेल के जरिये लोगों को जागरूक किया जाता है। बच्चों के लिए पेंटिंग, वाद-विवाद, निबंध-लेखन जैसी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। और जो इनमें शामिल नहीं हो पाते, वो घर बैठे ही यूएनईपी की साइट पर जाकर या खुद से यह प्रामिस करते हैं कि भविष्य में वे कम से कम अपने घर और आसपास के पर्यावरण को स्वस्थ बनाने का प्रयास करेंगे।
आम लोग कैसे दे सकते हैं इसमें योगदान
आम लोगों को भी इसमें योगदान देना है, इसके लिए वो अपने आसपास के वातावरण को स्वच्छ रखें। सड़क पर कूड़ा ना फेंके और न ही कूड़े में आग लगाएं। कूड़ा रीसाइकल के लिए भेजें।
प्लास्टिक, पेपर, ई-कचरे के लिए बने अलग-अलग कूड़ेदान में कूड़ा डाले ताकि वह आसानी से रीसाइकल के लिए जा सके।
वाहन चालक निजी वाहन की बजाय कार-पूलिंग, गाडियों, बस या ट्रेन का उपयोग करें।
कम दूरी के लिए साइकिल चलाना पर्यावरण और सेहत के लिहाज से बेहतर है।
पानी बचाने के लिए घर में लो-फ्लशिंग सिस्टम लगवाएं, जिससे शौचालय में पानी कम खर्च हो। शावर से नहाने की बजाय बाल्टी से नहाएं।
ब्रश करते समय पानी का नल बंद रखो। हाथ धोने में भी पानी धीरे चलाएं। गमलों में लगे पौधों को बाल्टी-मग्गे से पानी दें। नल में कोई भी लीकेज हो तो उसे प्लंबर से तुरंत ठीक करवाएं ताकि पानी टपकने से बरबाद न हो। नदी, तालाब जैसे जल स्त्रोतों के पास कूड़ा ना डालें। यह कूड़ा नदी में जाकर पानी को गंदा करता है।
घर की छत पर या बाहर आंगन में टब रखकर बारिश का पानी जमा करें, इसे फिल्टर करके फिर से इस्तेमाल कर सकते हैं।
अभिलाषा ठाकुर
                                                                           अमलेश्वर, दुर्ग

पृथ्वी की चिंता अब नहीं तो कभी नहीं
ग्लोबल वार्मिंग के रूप में जो परिदृश्य आज हमारे सामने है, ऐसा लगातार बना रहा तो एक दिन ऐसा आएगा जब पृथ्वी से जीव-जंतुओं व वनस्पति का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
बढ़ती जनसंख्या का दबाव
वर्तमान समय में पृथ्वी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती बढ़ती जनसंख्या है। पृथ्वी की कुल आबादी आज साढ़े सात अरब से अधिक हो चुकी है। यह प्रकृति का सिद्धांत है की आबादी का विस्फोट उपलब्ध संसाधनों पर नकारात्मक दबाव डालता है, जिससे पृथ्वी की नैसर्गिकता प्रभावित होती है। बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पृथ्वी के दोहन (शोषण) की सीमा आज चरम पर पहुँच चुकी है। जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम-से-कम करना दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है। विश्व में बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगीकरण एवं शहरीकरण में तेज़ी से वृद्धि के साथ-साथ ठोस अपशिष्ट पदार्थों द्वारा उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण की समस्या विकराल होती जा रही है।
हम सभी हालात बदलना चाहते हैं। पर्यावरण की साफ-सफाई और संरक्षण में योगदान देना चाहते हैं। हम जिस हवा में साँस लेते हैं वह इतनी दूषित हो चुकी है कि प्रतिवर्ष लाखों लोग इसकी वज़ह से काल के गाल में समा जाते हैं। हमारी नदियाँ कूड़े-कचरे और गंदे पानी से खत्म हो रही हैं। हमारे वनों पर भी खतरा मंडरा रहा है। हम जानते हैं कि अपना पर्यावरण बचाने के लिये काफी कुछ करना होगा, अन्यथा पृथ्वी का अस्तित्व ही दाँव पर लगा रहेगा। हम सभी इन बेहद महत्त्वपूर्ण बदलावों का हिस्सा बनना चाहते हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि छठा महा विलुप्तिकरण ( Sixth Extinction or Anthropocene Extinction) से प्रजातियों के लुप्त होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, मधुमक्खियाँ, चींटियाँ, गुबरैले (बीटल), मकड़ी, जुगनू जैसे कीट जो हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं, अन्य स्तनधारी जीवों, पक्षियों और सरीसृपों की तुलना में आठ गुना तेज़ी से विलुप्त हो रहे हैं।
मनुष्य ही ज़िम्मेदार
पृथ्वी हमारे अस्तित्व का आधार है, जीवन का केंद्र है। यह आज जिस स्थिति में पहुँच गई है, उसे वहाँ पहुँचाने के लिये मनुष्य ही ज़िम्मेदार हैं। आज सबसे बड़ी समस्या मानव का बढ़ता उपभोग है, लेकिन पृथ्वी केवल उपभोग की वस्तु नहीं है। वह मानव जीवन के साथ-साथ असंख्य वनस्पतियों, जीव, जंतुओं की आश्रय स्थली भी है।
हम इन सब के बारे में अच्छी तरह से जानते हैं, लेकिन सवाल यह है कि किया क्या जा सकता है? क्या कुछ ऐसा है जो हम मनुष्य, स्कूल, कालेज, कालोनी एवं समाज के तौर पर सामूहिक रूप से कर सकते हैं? हम कैसे अपना योगदान दे सकते हैं?
इसमें मुश्किल कुछ भी नहीं और हम सभी बड़ी आसानी से ऐसा कर सकते हैं। महात्मा गांधी का एक प्रसिद्ध कथन है… ‘‘हम दुनिया में जो भी बदलाव लाना चाहते हैं, उसे पहले हमें खुद पर लागू करना चाहिये।“ हमें आज यही करने की ज़रूरत है। हम मनुष्यों की जीवनशैली ने पर्यावरण को लगभग बर्बाद कर दिया है। हमारी गतिविधियों और उन्हें कार्यरूप देने के तरीकों का अंतर बेहद महत्त्वपूर्ण होता है। इसीलिये बदलाव की दिशा में सबसे पहला कदम यह होना चाहिये कि हम अपने कार्यों के प्रति सचेत और जागरूक हों। हमें बदलावों को आत्मसात करना होगा।
इस ब्रह्मांड की चेतना है मनुष्य
विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर हम सभी को पृथ्वी के प्रहरी बनकर उसे बचाने और आवश्यकतानुरूप उपभोग का संकल्प लेना होगा, तभी हम उसकी लंबी आयु की कामना कर सकते हैं। मनुष्य इस ब्रह्मांड का मस्तिष्क यानी चेतना है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इसके बावजूद हमारी पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी स्पष्ट नहीं है।
मनुष्य ने न केवल जलवायु चक्रों को बदल दिया है, बल्कि ब्रह्मांड के जीवित स्वरूप को नष्ट कर इसकी जैविक लय को अवरुद्ध कर दिया है। ब्रह्मांड में और किसी अन्य जीव के पास मनुष्य जैसे विशेषाधिकार नहीं हैं तथा सिर्फ मनुष्य ही पृथ्वी को जीवंत रखने में सबसे प्रभावी योगदान कर सकते हैं।
कीट-पतंगे संकट में
वैज्ञानिकों का मानना है कि छठा महा विलुप्तिकरण ;ैपगजी म्गजपदबजपवद वत ।दजीतवचवबमदम म्गजपदबजपवद) से प्रजातियों के लुप्त होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, मधुमक्खियाँ, चींटियाँ, गुबरैले (बीटल), मकड़ी, जुगनू जैसे कीट जो हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं, अन्य स्तनधारी जीवों, पक्षियों और सरीसृपों की तुलना में आठ गुना तेज़ी से विलुप्त हो रहे हैं।
इस रिपोर्ट में पिछले 13 वर्षों में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में प्रकाशित 73 शोधों की समीक्षा की गई है। इसमें शोधकर्त्ताओं ने पाया कि सभी जगहों पर इनकी संख्या में कमी आने के कारण अगले कुछ दशकों में 40 प्रतिशत कीट विलुप्त हो जाएंगे। कीटों की संख्या हर साल ढाई प्रतिशत की दर से कम हो रही है। कीट-पतंगों का कम होना पारिस्थितिकी तंत्र के लिये घातक है, क्योंकि पारिस्थितिकी तंत्र और खाद्य श्रृंखला के संतुलन के लिये कीट-पतंगों का होना बहुत ज़रूरी है।
आज विश्व में हर जगह प्रकृति का दोहन जारी है तथा इसके दोहन और प्रदूषण की वज़ह से विश्व स्तर पर लोगों की चिंता सामने आना शुरू हुई है। आज जलवायु परिवर्तन पृथ्वी के लिये सबसे बड़ा संकट का कारण बन गया है। यदि पृथ्वी के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग जाएगा तो इसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। इस विश्व पर्यावरण दिवस पर संकल्प लेना चाहिये कि हम पृथ्वी और उसके वातावरण को बचाने का प्रयास करेंगे तभी हम
 भाव्या सिंह
                                                                                  अमलेश्वर, दुर्ग