जलवायु परिवर्तन एवं कृषि वानिकी

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वैज्ञानिकों के अनुसार इस बात की प्रबल संभावना है कि जलवायु परिवर्तन समग्र विश्व में कृषि के लिये नकारात्मक परिणाम उत्पन्न करेगा। जलवायु परिवर्तन के अनुक्रमिक परिणाम के रूप में चरम मौसमी घटनाओं द्वारा कृषि की समग्र उत्पादकता को कम कर देने की भी संभावना है। अचानक आने वाली बाढ़, सूखा, बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि, ग्रीष्म व शीत लहरें , जो फसलों के लिये अनुपयुक्त तापमान उत्पन्न करती हैं, जैसी घटनाएँ कृषि अभ्यासों को नई जलवायु वास्तविकताओं के अनुकूल बनाने की मांग रखती हैं। इस परिदृश्य में कृषि-वानिकी या ।हतव-वितमेजतल का अभ्यास भारत के साथ-साथ अन्य विकासशील देशों के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
कृषि-वानिकी एक भूमि उपयोग प्रणाली है जो वृक्षारोपण, फसल उत्पादन और पशुपालन को इस तरह से एकीकृत करती है जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अत्यंत उपयुक्त हो।
यह उत्पादकता, लाभप्रदता, विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र की संवहनीयता को बढ़ाने के लिये कृषि भूमि और ग्रामीण भू-दृश्य के साथ वृक्षों व झाड़ियों को एकीकृत करता है। यह एक गतिशील, पारिस्थितिकी पर आधारित, प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन प्रणाली है, जो खेतों एवं कृषि भू-दृश्य में काष्ठीय बारहमासी पादप के एकीकरण के माध्यम से उत्पादन में विविधता एवं संवहनीयता लाती है और सामाजिक सहयोग का निर्माण करती है।
कृषि-वानिकी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। यह देश की ईंधन लकड़ी आवश्यकताओं के लगभग आधे हिस्से, लघु इमारती लकड़ी की मांग के लगभग दो-तिहाई हिस्से, प्लाईवुड आवश्यकता के 70-80 प्रतिशत भाग, लुग्दी उद्योग के लिये कच्चे माल के 60 प्रतिशत भाग और हरा चारा के 9-11प्रतिशत हिस्से की पूर्ति करती है।
वृक्ष उत्पाद और वृक्ष द्वारा प्रदत्त सेवाएँ ग्रामीण आजीविका में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। फल, चारा, ईंधन, फाइबर, उर्वरक और इमारती काष्ठ खाद्य व पोषण सुरक्षा एवं आय सृजन में योगदान करते हैं, साथ ही फसल खराब होने पर बीमा के रूप में कार्य करते हैं।
कृषि-वानिकी या वृक्ष-आधारित खेती एक स्थापित प्रकृति-आधारित गतिविधि है जो कार्बन-तटस्थ विकास में सहायता कर सकती है। यह वनों के बाहर वृक्षावरण का विस्तार करती है, प्राकृतिक वनों की तरह कार्बन प्रच्छादन में योगदान करती है और इस तरह उन पर से दबाव को कम करती है और किसानों की आय बढ़ाने में मदद करती है। कृषि-वानिकी प्रणालियों में उगाए जाने वाले नाइट्रोजन-फिक्सिंग वृक्ष प्रति वर्ष लगभग 50-100 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर फिक्सिंग में सक्षम हैं।
यह कृषि-वानिकी प्रणाली के सबसे आशाजनक घटकों में से एक है। गिरी हुई पत्तियाँ अपघटित हो ह्यूमस का निर्माण करती हैं और पोषक तत्व प्रदान कर मृदा की गुणवत्ता को समृद्ध करती हैं। यह उर्वरक आवश्यकता को भी कम करती है।रासायनिक उर्वरकों की कम आवश्यकता के कारण कृषि-वानिकी जैविक खेती को पूरकता प्रदान कर सकती है। कम रसायनों के उपयोग से जलवायु पर मानवजनित प्रभावों को कम करने में भी मदद मिलेगी। कृषि-वानिकी कटाव नियंत्रण एवं जल प्रतिधारण, पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण, कार्बन भंडारण, जैव-विविधता संरक्षण और स्वच्छ हवा में मदद करती है और समुदायों को चरम मौसमी घटनाओं का मुक़ाबला कर सकने में सक्षम बनाती है। कृषि-वानिकी निम्नलिखित विषयों में भारत को अपने अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों को पूरा करने में भी मदद कर सकती है।
1.जलवायु
वर्ष 2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्षों के आवरण के माध्यम से 2.5 से 3 बिलियन टन कार्बन डाइआक्साइड समतुल्य अतिरिक्त कार्बन सिंक का सृजन और वर्ष 2070 तक शुद्ध-शून्य की प्राप्ति।
2.मरुस्थलीकरण
वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर भूमि क्षरण तटस्थता प्राप्त करना; इस प्रकार 17 सतत विकास लक्ष्यों में से 9 को पूरा करना।
3.बेहतर कृषि उपज
सामान्य मृदा की तुलना में वन-प्रभावित मृदा में फसलों की अधिक पैदावार देखी गई है। उपयुक्त कृषि-वानिकी प्रणाली मृदा के भौतिक गुणों में सुधार करती है, मिट्टी के कार्बनिक पदार्थों को बनाए रखती है और पोषक चक्रण को बढ़ावा देती है। कृषि-वानिकी संवहनीय नवीकरणीय बायोमास आधारित ऊर्जा के उत्पादन और संवर्द्धन में भी मदद करेगी।
कृषि-वानिकी के प्रति अब तक भारत का रुख अत्यंत सकारात्मक रहा है। वर्ष 2014 में भारत रोज़गार, उत्पादकता और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देने के लिये एक ‘राष्ट्रीय कृषि-वानिकी नीति’ अपनाने वाला विश्व का पहला देश बना।
वर्ष 2016 में राष्ट्रीय अनुकूलन योजना ( एनएपी ) के अंतर्गत लगभग 1,000 करोड़ रुपए परिव्यय के ‘कृषि-वानिकी पर उप-अभियान’ की शुरुआत की गई ताकि ‘हर मेड़ पर पेड़’ के टैगलाइन के साथ कृषि-वानिकी को एक समग्र राष्ट्रीय प्रयास का रूप दिया जा सके। वर्ष 2022-23 के केंद्रीय बजट में भारत के वित्त मंत्री ने घोषणा की कि भारत सरकार कृषि वानिकी को बढ़ावा देगी। हालाँकि कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने सबमिशन आन एग्रोफोरेस्ट्री (एस एम ए एफ) का राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के साथ विलय कर दिया जिसने कृषि-वानिकी क्षेत्र को अपनी प्रमुख कार्यान्वयन शाखा से वंचित कर दिया।
कृषि-वानिकी के अंगीकरण के संबद्ध में कुछ समस्याएँ भी हैं-
1.किसानों के बीच सूचनाओं का अभावः
हालाँकि कृषि-वानिकी भारत में अज्ञात नहीं है, कई किसान वृक्षों के रोटेशन और परिपक्व वृक्षों के व्यापार संबंधी कानूनी पहलुओं के बारे में जानकारी की कमी के कारण इसे अपनाने को इच्छुक नहीं हैं।
2.कृषि-वानिकी का अस्पष्ट वर्गीकरणः
कृषि-वानिकी एक अपेक्षित आंदोलन का स्वरूप ग्रहण नहीं कर सका है। लंबे समय तक यह विषय ‘कृषि’ और ‘वानिकी’ के बीच की दरार में झूलता रहा जहाँ दोनों ही क्षेत्रों का इस पर प्राधिकार नहीं था। राष्ट्रीय प्रणाली में कृषि-वानिकी का मूल्य और दर्जा अस्पष्ट और लगभग उपेक्षित ही बना रहा है।
3.वित्तीय बाधाएँः
इस क्षेत्र में अपर्याप्त निवेश भी उपेक्षा का एक कारण है। फसल क्षेत्र के लिये उपलब्ध ऋण और बीमा उत्पादों के विपरीत, खेतों में पेड़ उगाने के लिये न्यूनतम प्रावधान मौजूद हैं। कमज़ोर विपणन अवसंरचना, मूल्य खोज तंत्र की अनुपस्थिति और फसल कटाई के बाद की प्रसंस्करण प्रौद्योगिकियों की कमी ने स्थिति को और अधिक जटिल बना दिया है।
4.लघु और सीमांत कृषि-भूमिः
अधिकांश किसान लघु और सीमांत हैं जिनके पास छोटे खेत हैं (2 हेक्टेयर से कम)। इस परिदृश्य में आर्थिक रूप से और स्थानिक रूप से कृषि-वानिकी अव्यवहार्य है।
कृषि वानिकी को बढ़ावा देने के लिये कतिपय उपाय किए जा सकते हैं। इस क्षेत्र को इसके उपयोगिता दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य से संस्थागत रूप से मज़बूत और स्पष्ट चिह्नित किये जाने की आवश्यकता है जो खेत-वानिकी, पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास को समाहित करता हो। केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के किसानों के बजाय सभी छोटे भूमिधारकों को वित्तीय सहायता प्रदान की जानी चाहिये। प्रोटोकाल विकसित करने की आवश्यकता है, जहाँ छोटे भूमिधारक कार्बन ट्रेडिंग के माध्यम से आय अर्जित कर सकते हों। दीर्घावधिक वित्तपोषण चक्र के साथ संस्थागत ऋण, ब्याज स्थगन और कृषि-वानिकी के लिये उपयुक्त बीमा उत्पादों को भी अभिकल्पित किया जाना चाहिये। निजी क्षेत्र को भी कृषि-वानिकी में एक वाणिज्यिक उद्यम के रूप में, साथ ही ‘कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व’ के माध्यम से निवेश करना चाहिये।
वृक्ष आधारित खेती और मूल्य श्रृंखला विकास के विस्तार को बढ़ावा देने के लिये क्षमता निर्माण हेतु किसान समूहों, सहकारी समितियों, स्वयं सहायता समूहों, किसान-उत्पादक संगठनों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। कम से कम 10 प्रतिशत कृषि भूमि को वृक्ष आच्छादित करने का लक्ष्य रखना संभव है।
कृषि-वानिकी की वर्तमान स्थिति प्रतिकूल कानूनों में संशोधन और वानिकी एवं कृषि से संबंधित विनियमों को सरल बनाने की मांग रखती है। नीति-निर्माताओं को भूमि उपयोग और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन से संबंधित सभी नीतियों में कृषि-वानिकी को शामिल करना चाहिये और कृषि-वानिकी संबंधी अवसंरचना में सरकारी निवेश तथा स्थायी उद्यमों की स्थापना को प्रोत्साहित करना चाहिये।
डॉ. दीपक कोहली
संयुक्त सचिव, उत्तर प्रदेश सचिवालय, 5/104, विपुल खंड, गोमती नगर लखनऊ – 226010