पेड़ लगाना अच्छी बात है लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि पुराने पेड़ काटकर नए पेड़ लगाना ज्यादा अच्छी बात नहीं है। इस आधार पर भारत की नीतियों की आलोचना हो रही है।
वैज्ञानिक, कार्यकर्ता और वृक्ष-प्रेमी रवि चोपड़ा के लिए यह मंजर दिल दुखाने वाला है। उनके घर के पास जहां कभी एक घना जंगल हुआ करता था, वहां अब सिर्फ सपाट पीली जमीन नजर आती है। जगह-जगह बजरी और सड़क बनाने के लिए जरूरी अन्य साज ओ सामान के ढेर लगे हैं और सड़क निर्माण के लिए मजदूरों की आवाजाही है।
हिमालयी शहर देहरादून में रहने वाले चोपड़ा कहते हैं, ‘‘यह सब हमें पागल कर रहा है। अपने जंगल काटने के लिए हमें बहुत भारी कीमत चुकानी होगी।’’ रवि चोपड़ा एक संस्था चलाते हैं जो पर्यावरण की सुरक्षा के लिए काम करती है। वह आजकल देहरादून दो सड़कों को चौड़ा करने के लिए पेड़ों की कटाई से दुखी हैं।
देश भर में सड़क, बिजली और अन्य परियोजनाओं के लिए पेड़ों की कटाई जोरों से हो रही है। सरकारी आंकड़ों को मुताबिक 2016 से 2021 के बीच 83,000 हेक्टेयर जंगल काटे जा चुके हैं। इनमें से पांच फीसदी तो राष्ट्रीय उद्यानों आदि की संरक्षित जमीन पर थे। भारत में विकास का दबाव इतना ज्यादा है कि देश के स्थापति जंगलों का क्षेत्र लगातार सिकुड़ रहा है। हालांकि सरकार का कहना है कि वह अन्य क्षेत्रों में पेड़ लगाकर जंगलों की भरपाई कर रही है।
भारत सरकार ने 2030 तक इतने वन लगाने का लक्ष्य तय किया है जिनके जरिए ढाई से तीन अरब टन कार्बन सोखी जा सके। सरकार इसके जरिए अपने जलवायु परिवर्तन संबंधी लक्ष्य हासिल करना चाहती है। लेकिन आलोचक कहते हैं कि काटे गए पेड़ों के बदले में पेड़ लगाकर जंगलों की भरपाई नहीं हो सकती। जानकार कहते हैं कि जंगल काटकर बदले में पेड़ लगाना भरे-पूरे जंगलों की भरपाई का एक खराब विकल्प है, भले ही उससे कार्बन डाई आक्साइड का स्तर कम हो जाए।
वृक्षारोपण योजना बंद करने की सिफारिश
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सात सदस्यों की एक विशेषज्ञ समिति बनाई थी जिसे वन कटाई के बदले पेड़ लगाने के विकल्प का अध्ययन करने का काम सौंपा गया था। उस समिति ने सरकार से आग्रह किया है कि एक हजार पेड़ प्रति हेक्टेयर लगाने की अपनी योजना को बंद कर दे। उस समिति ने कहा है कि गहन वृक्षारोपण ‘‘देखने में भले ही कम अवधि की आकर्षक योजना लगती है लेकिन व्यवहारिकता में यह जल्दी से बड़े हो जाने वाले ऐसे पेड़ों के रोपण की ओर झुकी होती है, जो उस इलाके के मूल नहीं होते। ऐसे पेड़ों में स्थानीय जैव विविधता के पालन की क्षमता बहुत कम होती है।’’
समिति की रिपोर्ट कहती है कि कुछ जगहों पर तो यह नीति पारिस्थितिकी तंत्र और आर्थिक रूप से नुकसानदायक भी हो सकती है। रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि हर जगह एक जैसी व्यवस्था की जगह स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र की जरूरतों के अनुरूप वृक्षारोपण होना चाहिए। रिपोर्ट में गुजरात का उदाहरण दिया गया है जहां बाहर से लाकर उगाए गए एक पेड़ ने स्थानीय घास के मैदानों पर कब्जा कर लिया। घास के ये मैदान मवेशियों के चरने की चारागाह और काले हिरण के निवास स्थान के रूप में पारिस्थितिकी का हिस्सा थे।
भारत वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के संयुक्त सचिव जिग्मेत ताकपा कहते हैं कि भारत की बड़ी आबादी के कारण जमीन और वन आदि संसाधानों पर दबाव पड़ना स्वभाविक है। उन्होंने बताया, ‘‘जब भी सरकार जन कल्याण के लिए कोई परियोजना शुरू करती है तो पर्यावरण के नाम पर उसकी आलोचना एक फैशन बन गया है। लेकिन हम समिति की रिपोर्ट में कही गईं बातों का सम्मान करते हैं। ये ध्यान दिए जाने लायक और लागू किए जाने लायक हैं।’’
पिछले साल जनवरी में ही भारत सरकार ने वनों की स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें कहा गया था कि देश का वन क्षेत्र बीते दो साल में 2,261 वर्ग किलोमीटर यानी करीब सवा चार लाख फुटबाल मैदानों जितना बढ़ गया है। लेकिन विशेषज्ञ इसे नाकाफी मानते हैं।
‘निर्रथक है नीति’
दिल्ली स्थित सेंटर फार पालिसी रिसर्च में पर्यावरणीय नीति की विशेषज्ञ कांची कोहली कहती हैं कि सिर्फ कार्बन उत्सर्जन को केंद्र में रखर सरकार एक ही तरह के पेड़ों की आबादी बढ़ाने का खतरा भी उठा रही है, जिनसे स्थानीय पारिस्थितिकी और पारंपरिक जैव विविधता खतरे में पड़ सकती है।
वह बताती हैं, ‘‘उपग्रहों से मिले डेटा के आधार पर तैयार की गइ रिपोर्ट को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन संबंधी लक्ष्यों को केंद्र में रखकर तैयार किया गया है। इसमें प्राकृतिक वनों के खोने और उनके स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं व जैव विविधता पर हुए नुकसान का कोई जिक्र नहीं है।’’
जहां तक कार्बन उत्सर्जन घटाने की बात है तो उसे लेकर भी मौजूदा नीति पर सभी विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं। अमेरिका के मिनेसोटा विश्वविद्यालय में में वन और प्रशासन संबंधी नीति के विशेषज्ञ फारेस्ट फ्लाइशमैन कहते हैं कि इस नीति का कोई मतलब नहीं बनता। वह कहते हैं, ‘‘जब परिपक्व पेड़ काटे जाते हैं तो उनकी कार्बन सोखने की क्षमता फौरन खत्म हो जाती है जबकि नए पेड़ों को वह क्षमता विकसित करने में कई साल लगते हैं। और यह भी इस बात पर निर्भर करता है कि जो पेड़ लगाए गए हैं वे असल में विकसित होंगे, जो हमारी रिसर्च के मुताबिक, अक्सर होता नहीं है। रिसर्च दिखाती है कि कार्बन स्टोरेज के मामले में नया वृक्षारोपण कभी परिपक्व वनों की जगह नहीं ले सकता।
– सुभाष केलकर