प्रकाश प्रदूषण की चपेट में आई दुनिया की 83 फीसदी आबादी: भाग-2

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गतांक से आगेः
मौजूदा मंे समय प्रकाश प्रदूषण पारिस्थितिक तंत्र को इस हद तक प्रभावित कर रहा है कि सदियों से चली आ रही प्रकाश और अंधेरे की प्राकृतिक व्यवस्था बिगड़ने लगी है। इस प्राकृितक व्यवस्था में विकसित हुए असंख्य जीव बदली परिस्थितियों में खुद को समायोजित करने में सक्षम नहीं हैं। शांताकुमार विल्सन राजारत्नम के अनुसार, ‘‘जीवों के रूप में हम सूरज की रोशनी और अंधेरे के चक्र के साथ जुड़े रहने के हिसाब से विकसित हुए हैं। हमारे विकास के क्रम में एक समय में हम शाम को सोने की तैयारी करते थे और भोर में जाग जाते थे। यह तब था, जब हमारा तालमेल सूरज की रोशनी और अंधेरे के चक्र के साथ बना हुआ था। अब कृत्रिम रोशनी के कारण हममें से ज्यादातर लोगों के लिए रात, आधी रात के बाद शुरू होती है। शाम के समय कृत्रिम प्रकाश के संपर्क में आने से कई तरह के प्रभाव पड़ते हैं।’’ पशु-पक्षियों, पौधों और कीट-पतंगों के दैनिक व्यवहार, उनकी क्रियाओं और शरीर विज्ञान पर इसका खास असर है।

नेचर जर्नल में अगस्त 2017 में प्रकाशित ‘‘आर्टिफिशियल लाइट एट नाइट एज ए न्यू थ्रेट टु पालिनेशन’’ अध्ययन में पाया गया है कि रात में कृत्रिम प्रकाश रात्रिकालीन परागण कीटों को बाधित करता है और पौधों की उत्पादन क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। अध्ययन के मुताबिक, कृत्रिम रूप से प्रकाशित पौधों पर परागण कीटों के रात्रिकालीन दौरे अंधेरे क्षेत्रों के मुकाबले 62 प्रतिशत कम हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप पौधों की उत्पादकता में 13 प्रतिशत की कमी आई। यह कमी दिन में परागण कीटों के कई दौरों के बावजूद दर्ज की गई।

डार्क स्काई एडवाइजरी ग्रुप के अध्यक्ष व वल्र्ड एट नाइट रिपोर्ट के लेखकों में शामिल डेविड वेल्च अपने अनुभवों के आधार पर कहते हैं कि दक्षिण पश्चिम संयुक्त राज्य अमेरिका में कार्नेगी गिगेंटिया नाम का सगुआरो कैक्टस परागण और प्रजनन के लिए अंधेरी रात पर निर्भर है। इसके फूल केवल 24 घंटों के लिए खिलते हैं। ये रात में खुलते हैं और अगले दिन पूरे दिन खुले रहते हैं। परागण के लिए इस सीमित समय में यह सगुआरो प्रभावी ढंग से प्रजनन के लिए शाम को चमगादड़ और दिन के दौरान मधुमक्खियों, पक्षियों और अन्य परागणकों पर आश्रित है। रात के समय किसी भी तरह की कृत्रिम रोशनी इस सहजीवन को खतरे में डाल देती है।

इस तथ्य के प्रमाण हैं कि हर साल लाखों प्रवासी पक्षी प्रकाश प्रदूषण के चलते मारे जा रहे हैं। अक्सर रात में उड़ने वाले बत्तख, गीज, सैंडपाइपर, सान्गबर्ड के अलावा सीबर्ड, जैसे पक्षियों पर इसका गंभीर खतरा है। कन्वेंशन आन द कंजरवेशन आफ माइग्रेटरी स्पीसीज आफ वाइल्ड एनिमल (सीएमएस) की कार्यकारी सचिव एमी फ्रेंकल के अनुसार, प्रकाश प्रदूषण के कारण पक्षियों का प्रवास का समय और अन्य मौसमी व्यवहार भी प्रभावित हो सकता है क्योंकि यह बायोलाजिकल क्लाक (जैविक घड़ी) को बाधित करता है।

नेचर जर्नल में जून 2023 में प्रकाशित अनिक्का के जगरब्रांड और कैमियल स्पोइलस्ट्रा का अध्ययन ‘‘इफेक्ट आफ एंथ्रोपोसीन लाइट आन स्पीसीज एंड ईकोसिस्टम्स’’ में पाया गया है कि पक्षियों पर मानवजनित प्रकाश के सबसे स्थापित प्रभावों में से एक प्रवास के दौरान उनकी प्रतिक्रिया है। रात में प्रवास करने वाले कई पक्षी प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं और इससे विचलित हो जाते हैं। यह विशेष रूप से तेज प्रकाश वाले क्षेत्रों में अधिक होता है। प्रकाश के प्रति यह आकर्षण न केवल उन्हें इमारतों, लाइटहाउस और जहाजों से टकराने का कारण बन सकता है, बल्कि उन्हें उपयुक्त रुकने वाले स्थानों से भी भटका सकता है। अध्ययन के अनुसार, प्रकाश पक्षियों में तनाव और नींद में खलल का कारण बन सकता है।

आनिथोलाजिकल एप्लीकेशंस में फरवरी 2014 में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन ‘‘बर्ड बिल्डिंग कालीजन इन द यूनाइटेड स्टेट्स: एस्टीमेट आफ एनुअल मार्टेलिटी एंड स्पीसीज वल्नरबिलिटी’’ में अनुमान लगाया गया है कि अमेरिका में इमारतों से टकराकर हर साल 10 से 100 करोड़ पक्षियों की मृत्यु हो जाती है।

जनवरी 2024 में सात अंतरराष्ट्रीय संस्थानों- वल्र्ड कमीशन आन प्रोटेक्टेड एरियाज (डब्ल्यूसीपीए), अर्बन कंजरवेशन स्ट्रेटजीज स्पेशल ग्रुप, डार्क स्काई एडवाइजरी ग्रुप, डार्क स्काई, इंटर एनवायरमेंट इंस्टीट्यूट, रायल एस्ट्रोनोमिकल सोसायटी आफ कनाडा और यूनाइटेड स्टेट्स नेशनल पार्क सर्विस, नेचुरल साउंड एंड नाइट स्काई डिवीजन द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित रिपोर्ट ‘‘वल्र्ड एट नाइट’’ प्रकाश प्रदूषण का पक्षियों पर गंभीर प्रभाव मानते हुए कहती है कि इससे विशेष रूप से कीट-पतंगों पर निर्भर पक्षियों की भोजन की आदतें प्रभावित हो सकती हैं।

अनिक्का के जगरब्रांड और कैमियल स्पोइलस्ट्रा के अध्ययन के अनुसार, चमगादड़ों की बहुत-सी प्रजातियां रात्रिचर होती हैं और रोशनी में तीव्रता से प्रतिक्रिया करती हैं। चमगादड़ भोजन की तलाश और आवागमन के लिए जंगल के किनारों, कतारबद्ध झाड़ियों और धाराओं का उपयोग करते हैं। इन मार्गों पर प्रकाश उनके लिए अवरोधक का कार्य कर सकता है। चमगादड़ के निवास स्थलों में या उसके आसपास मानवजनित प्रकाश के कारण उनके जागने में देरी हो सकती है अथवा वे अपना निवास छोड़ सकते हैं जिससे उनकी आबादी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अध्ययन के अनुसार, प्रकाश के प्रभाव से कई स्तनधारियों की दैनिक और मौसमी क्रियाएं, शारीरिक बनावट और प्रजनन बाधित हो सकता है।

अनिक्का व कैमियल ने अपने अध्ययन में यह भी पाया है कि कीटों का मानवजनित प्रकाश के प्रति आकर्षण दुनियाभर में उनकी मृत्यु और खात्मे का कारण बन रहा है। बायोल्यूमिनसेंट सिग्नलिंग पर निर्भर जुगनू जैसे कीट विशेष रूप से मानवजनित प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं। इससे उनका प्रजनन सीधे तौर पर प्रभावित होता है। जलीय कीटों और गुबरैला जैसे कीटों की प्रकाश संकेतों का उपयोग करके आगे बढ़ने की क्षमता भी प्रकाश की

उपस्थिति में बाधित होती है।
गैर लाभकारी संगठन डार्क स्काई इंटरनेशनल द्वारा हालिया प्रकाशित रिपोर्ट ‘‘आर्टिफिशियल लाइट एट नाइट:स्टेट आफ साइंस 2024’’ के अनुसार, पारिस्थितिकीविदों ने विभिन्न प्रजातियों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका का अध्ययन किया है जिसे अब ‘‘पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं’’ कहा जाता है। ये वो लाभ हैं जो मनुष्य को प्राकृतिक पर्यावरण से प्राप्त होते हैं।

मानव कल्याण के लिए महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र सेवा का एक उदाहरण कीटों द्वारा खाद्य फसलों का परागण है। इनमें से कई कीट केवल रात में ही सक्रिय होते हैं। कुछ प्रजातियां केवल मंद, प्राकृतिक प्रकाश की स्थितियों में ही परागण करती हैं। रात्रि के कृत्रिम प्रकाश में परागण कीटों की जनसंख्या में गिरावट को देखते हुए कुछ लोगों ने इसे ‘‘कीटों का काल’’ कहा है।

डार्क स्काई इंटरनेशनल की ‘‘आर्टिफिशियल लाइट एट नाइट: स्टेट आफ साइंस 2024’’ रिपोर्ट के अनुसार, वैज्ञानिकों ने कम से कम 160 प्रजातियों पर रात्रि के कृत्रिम प्रकाश के संपर्क के कारण पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है। उन्होंने पौधों और जानवरों के व्यक्तिगत से लेकर पूरी आबादी तक के स्तरों पर नुकसान देखा है। रिपोर्ट के अनुसार, कृत्रिम प्रकाश के संपर्क में आने से कुछ जीवों की प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर हो जाती है और इससे वे पर्यावरण संबंधी तनाव के प्रति कम सहनशील हो सकते हैं। माता-पिता अपनी संतानों को कृत्रिम प्रकाश से उपजी कमजोरी दे सकते हैं।

मानव स्वास्थ्य को नुकसा
कृत्रिम प्रकाश के दुष्प्रभाव वन्यजीव तक ही सीमित नहीं है। यह मानव सेहत पर भी बेहद बुरा असर डालता है। जून 2023 में साइंस जर्नल में प्रकाशित केएम जीलिंस्का डबकोवस्का, ईएस शेमरहेमर, जेपी हेनिफिन व जीसी ब्रेनार्ड ने अपने संयुक्त अध्ययन ‘‘रिड्यूसिंग नाइटटाइम लाइट एक्पोजर इन अर्बन एनवायरमेंट टु बेनिफिट ह्यूमन हेल्थ एंड सोसायटी’’ में पाया है कि शाम और रात के समय बहुत अधिक प्रकाश के संपर्क में आने से सर्कैडियन फिजियोलाजी, मेलाटोनिन स्राव और नींद बाधित हो सकती है और दृश्य प्रणाली पर दबाव पड़ सकता है। अध्ययन में पाया गया है कि पिछले 12 वर्षों में रात की कृत्रिम रोशनी करीब 10 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ी है। अधिक आबादी का शहरों में बसने का अर्थ है अधिकांश इंसानों का रात के चमकीले प्रकाश में आ जाना। मानव ने अपने व्यवहार से दिन लंबे और रातें छोटी कर ली हैं। हम रात के समय घर में सोने से पहले की रोशनी, कंप्यूटर, मोबाइल फोन और टेलीविजन स्क्रीन से आने वाली रोशनी के साथ-साथ स्ट्रीट लाइट, सुरक्षा लाइटिंग, बाहरी इमारतों और चमकीले रोशनी वाले विज्ञापनों से घर में प्रवेश करने वाली रोशनी के संपर्क में आते हैं। अध्ययन के मुताबिक, कृत्रिम प्रकाश से रात में काम करने वाले कामगार न केवल कैंसर की जद में आ सकते हैं बल्कि हृदय की बीमारियों, टाइप 2 मधुमेह, हाइपरटेंशन, मोटापा, अवसाद व अन्य बीमारियों की चपेट में आ सकते हैं। इतना ही नहीं, घर के बाहर नीले स्पेक्ट्रम वाले कृत्रिम प्रकाश के संपर्क को स्तन, प्रोस्ट्रेट और कोलोन कैंसर से भी जोड़ा गया है।

लैंसेट में 4 जून 2024 को प्रकाशित अध्ययन ‘‘पर्सनल लाइट एक्पोजर पैटर्न एंड इंसीडेंट्स आफ टाइप 2 डायबिटीज: एनेलिसिस आफ 13 मिलियन आवर्स आफ लाइट सेंटर डाटा एंड 6,70,000 पर्सन ईयर्स आफ प्रास्पेक्टिव आब्जरवेशन’’ में आस्ट्रेलिया के मेलबर्न स्थित मोनाश यूनिवर्सिटी के टर्नर इंस्टीट्यूट फार ब्रेन एंड मेंटल हेल्थ के रिसर्च डेनियल पी विंड्रेड व अन्य आठ शोधकर्ताओं ने प्रकाश प्रदूषण का टाइप 2 डायबिटीज से सीधा संबंध स्थापित किया है। नींद प्रकाश के संपर्क, सर्कैडियन व्यवधान और मधुमेह के जोखिम के बीच संबंधों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

प्रकाश प्रदूषण को स्वास्थ्य और पारिस्थितिक प्रभावों अलावा जलवायु परिवर्तन के प्रेरक घटक के रूप में भी देखा जा रहा है। परेज के अध्ययन के अनुसार, अकेले शहरों में बाहरी प्रकाश व्यवस्था वैश्विक बिजली का 19 प्रतिशत उपभोग करती है जिसके 2040 तक 27 प्रतिशत तक पहुंचने का अनुमान है। एक सामान्य शहर के ऊर्जा बिल में 30 से 50 प्रतिशत योगदान आउडोर लाइटिंग का होता है। इस बिजली उत्पादन में ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन होता है। उनका आकलन है कि वैश्विक प्रकाश व्यवस्था प्रति वर्ष 1,471 मिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर उत्सर्जन करती है, जो चीन में कुल उत्सर्जन का 18 प्रतिशत या अमेरिका में 27 प्रतिशत के बराबर है।

सांस्कृतिक क्षय
साफ आसमान और तारों भरी रात सदियों से हमारी सांस्कृतिक विरासत की प्रतीक रही है। अनेकों किस्सों, कहानियों, गीतों और लोकोक्तियां की रचना तारों के इर्द-गिर्द हुई है। बचपन में हम छत पर लेटकर टिमटिमाते तारों को देखते हुए सोए हैं। इन्हीं टिमटिमाते तारों ने जेन टेलर को करीब 200 साल पहले ‘‘ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार..’’ लोरी लिखने की प्रेरणा दी थी जो लगभग हर बच्चे को जुबानी याद है। प्रकाश प्रदूषण की वजह से इन तारों का ओझल होना इस सांस्कृतिक विरासत की पतन भी है। जर्नल आफ डार्क स्काई स्टडीज में प्रकाशित अपने अध्ययन ‘‘वाइटनिंग द स्काई: लाइट पाल्यूशन एज ए फार्म आफ कल्चरल जेनोसाइड’’ में डुएन डब्ल्यू हेमेचर, क्रिस्टल डे नेपोली और बोन माट मानते हैं, ‘‘दुनियाभर में बहुत सी स्वदेशी परंपराएं और ज्ञान प्रणालियां तारों पर आधारित है। रात के आकाश का खत्म होना, तारों से स्वदेशी लोगों के संबंध को तोड़ने के समान है। यह सांस्कृतिक और पारिस्थितिक जनसंहार जैसा है।’’

अध्ययन के अनुसार, दुनियाभर की संस्कृतियों ने आकाश के साथ दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक नजरिए से एक नजदीकी संबंध बनाया है। जटिल ज्ञान प्रणालियों को संरक्षित करने के लिए तारों का उपयोग किया जाता है। ये ज्ञान प्रणालियां नौपरिवहन, खाद्य अर्थव्यवस्था, मौसम का पूर्वानुमान, मौसम में परिवर्तन की भविष्यवाणी और स्मृति में जानकारी को संग्रहीत करने और लंबे समय तक इसे लगातार पीढ़ियों तक पहुंचाने में मददगार रही हैं। आस्ट्रेलिया के टारेस स्ट्रेट द्वीप में रहने वाले एवं एबोरिजिनल आदिवासियों के लिए तारे इतिहास, कानून, नैतिकता और नैतिक मूल्यों को संप्रेषित करते हैं।
आस्ट्रेलियाई आदिवासियों के लिए आकाशगंगा में उभरने वाली एमू पक्षी की आकृतियां बहुत मायने रखती है। एमू की बदलती आकृतियां एबोरिजिनल आदिवासियों को पक्षी के व्यवहार, बदलते मौसम, नौवहन मार्ग और सामाजिक प्रथाओं का संकेत देती हैं। उदाहरण के लिए जब अप्रैल-मई में एमू आकाश में अपनी पहली पूर्ण उपस्थिति (जहां सिर से लेकर शरीर तक क्षितिज के ऊपर देखा जा सकता है) पर पहुंचता है, तो इसे एमू का प्रजनन का मौसम कहा जाता है। इस मौसम में अंडे दिए जाते हैं। यह आदिवासियों के लिए भोजन के स्रोत के रूप में अंडे इकट्ठा करने का संकेत होता है। भारत की गौंड आदिवासियों की भी तारों से जुड़ी परंपराएं हैं। शादी के बाद नव विवाहित जोड़े को आकाश में एक दूसरे से बेहद नजदीक जोड़ा तारों को खोजना होता है। प्रकाश प्रदूषण से तारों को खोजने में कठिनाई के कारण उनकी यह परंपरा खतरे में पड़ गई है।
क्रिस्टोफर सीएम कायबा की रिपोर्ट ‘‘सिटिजन साइंटिस्ट्स रिपोर्ट ग्लोबल रेपिड रिडक्शन इन द विजिबिलिटी आफ स्टार फ्राम 2011 टु 2022’’ में भी इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि प्रकाश प्रदूषण के कारण खुली आंखों से तारों की देखने की क्षमता पर बुरा असर पड़ा है। रिपोर्ट में 51,351 वैज्ञानिकों के अवलोकनों को परखा गया। रिपोर्ट के अनुसार, आसमान में 9.6 प्रतिशत की वार्षिक दर से चमक बढ़ रही है। एक स्थान से जहां 250 तारे दिखाई देते थे, उसी स्थान पर 18 वर्ष की अवधि के बाद केवल 100 तारे ही दिखाई दे रहे थे। अध्ययन के अनुसार, 2011 से 2022 के बीच रात के आकाश में दिखने वाले तारों की संख्या हर साल 7 से 10 प्रतिशत कम हो रही है।

समाधान की पहल
आर्थिक विकास और शहरीकरण के मौजूदा दौर में महानगरों या बड़े शहरों से प्रकाश प्रदूषण को पूरी तरह खत्म करना मुश्किल है लेकिन इसे काफी हद तक कम जरूर किया जा सकता है। इसके लिए सबसे जरूरी है कि प्रकाश का अनावश्यक और अवांछित उपयोग बंद हो। इसके दुष्प्रभावों से बचने के लिए बहुत से देशों जैसे चेक रिपब्लिक, फ्रांस, जर्मनी, दक्षिण कोरिया और स्लोवेनिया ने कानूनी कदम और नीतिगत उपाय शुरू कर दिए हैं।
यूरोपियन एनवायरमेंट एजेंसी की रिपोर्ट ‘‘रिव्यू आफ असेसमेंट आफ एवेलेबल इन्फार्मेशन आन लाइट पाल्यूशन इन यूरोप’’ के अनुसार, चेक रिपब्लिक सबसे पहले 2002 में प्रकाश प्रदूषण के खिलाफ राष्ट्रीय नीति लेकर आया। इस देश में प्रकाश की अधिकतम सीमा निर्धारित है। यहां नगर पालिकाओं के लिए स्ट्रीट लाइट को ढंकना अनिवार्य है ताकि उसका प्रकाश वांछित स्थान पर ही गिरे। चेक रिपब्लिक ने 2021 में लाइटिंग मैनुअल प्रकाशित किए हैं और बाहरी लाइटिंग के मानक निर्धारित किए जा रहे हैं। क्रोएशिया में भी ऊर्जा उपभोग को सीमित करने के लिए प्रकाश प्रदूषण के खिलाफ कानून है। 2008 में यहां पहली कानूनी पहल हुई लेकिन वह नाकाफी साबित हुआ तो जनवरी 2019 को कानून बदल दिया गया।

वल्र्ड एट नाइट रिपोर्ट के अनुसार, कुछ देशों में कानून बाध्यकारी हैं तो कुछ में सलाहकार की भूमिका तक ही सीमित हैं। उदाहरण के लिए, आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड जैसे देशों में बाहरी प्रकाश व्यवस्था से संबंधित गैर-बाध्यकारी मार्गदर्शन हैं। कुछ क्षेत्रों में प्रचलित मानक पर्याप्त नहीं है और मात्र सड़क प्रकाश व्यवस्था पर लागू हैं।

यूरोपियन एनवायरमेंट एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2007 में बेहद सक्रिय खगोलज्ञों की मांग पर स्लोवेनिया में प्रकाश प्रदूषण रोकने के लिए दुनिया का पहला कानून बनाया। कानून में प्रकाश की सीमा, लाइट इंस्टालेशन पर तकनीकी प्रतिबंध और दंड के साथ निरीक्षण के प्रावधान हैं। यहां की नीतियां सामान्य आबादी के लिए प्रकाश उत्सर्जन को विनियमित करती हैं। स्मारकों, चर्चों, हवाई अड्डों, बंदरगाहों, रेलवे स्टेशनों या फ्रीवे जैसे सार्वजनिक स्थान के साथ ही निजी कार्यालय और भवनों में प्रकाश उत्सर्जन को विनियमित किया जाता है।

वल्र्ड एट नाइट रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में आउटडोर लाइटिंग नीतियों में कई खामियां हैं, जिनमें सबसे प्रमुख है उनका लगातार क्रियान्वयन न होना। इसे ध्यान में रखते हुए नीतियों को इस तरह से बनाया सकता है कि उन्हें आसानी से लागू किया जा सके। इस दृष्टिकोण की अंतिम सफलता व्यापक सार्वजनिक समर्थन पर निर्भर करती है।

भारत के पेंच टाइगर रिजर्व को इसी साल जनवरी में देश के पहले और एशिया के पांचवे डार्क स्काई पार्क का दर्जा हासिल हुआ है। इस पहल के तहत पार्क में स्थित चार गांवों- वाघोली, सिलारी, पिपरिया और खापा में प्रकाश प्रदूषण की वजह बनने वाली 100 से अधिक स्ट्रीट लाइटों को पूरी तरह बदल दिया गया है और ऐसी शील्डेड लाइटें लगाईं गईं हैं जिनकी दिशा जमीन की तरफ है। प्रकाश प्रबंधन के चलते अब इस क्षेत्र में 60 से 70 प्रतिशत प्रकाश प्रदूषण कम हो गया है।

स्वीडन और नीदरलैंड्स जैसे यूरोपीय देश पक्षियों, खासकर चमगादड़ों पर प्रकाश प्रदूषण के हानिकारक प्रभाव को कम करने के लिए आउटडोर लाइटिंग में लाल रंग को अहमियत दे रहे हैं। नीदरलैंड्स का एक शहर ज्यूडोक न्यूकूप तो स्ट्रीट लाइटों को लाल रंग में तब्दील करने वाला दुनिया का पहला शहर बन गया है। सेज जर्नल के लाइटिंग रिसर्च एंड टेक्नालजी में जनवरी 2024 में प्रकाशित डी डर्मस, एके जगरब्रांड व एमएन टेंजेलिन के शोधपत्र में माना गया है कि लंबी वेवलेंथ वाली लाल रोशनी अन्य रोशनी की तुलना में वायुमंडल में कम बिखरती है, जिससे स्काईग्लो और ग्लेयर की स्थिति नहीं बनती। यूरोप में प्रकाश प्रदूषण के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों में आउटडोर लाइटिंग में लाल रंग का चलन बढ़ रहा है जिससे रात के पर्यावरण व रात्रिचर जीवों की रक्षा की जा सके। अध्ययन के अनुसार, लाल रोशनी नींद को नियंत्रित करने वाले हार्माेन मेलाटोनिन को कम से कम दबाती है।

डार्क स्काई इंटरनेशनल ने समझदारी युक्त लाइटिंग के लिए पांच सिद्धांत बनाए हैं। आईडीए कहता है कि समझदारी लाइटिंग वह है जो उपयोगी, लक्षित, कम चमकीली, नियंत्रित और वार्म हो। अभिषेक के अनुसार, आमतौर पर स्ट्रीट लाइटों की करीब 60 प्रतिशत रोशनी ही जमीन पर गिरती और बाकी 40 प्रतिशत बर्बाद होती है। 90 डिग्री से अधिक ऊपर जाने वाली रोशनी आकाश में जाकर प्रकाश प्रदूषण का कारण बनती है। लाइट पर शील्ड लगाकर उसे कवर करने से वह ऊपर की ओर नहीं जाती। इसका एक फायदा यह होता है कि जितने क्षेत्र पर प्रकाश की जरूरत होती है, उतने में ही गिरती है। इससे रात्रिचर जीवों को भी फायदा मिलता है। वह बताते हैं कि हम जरूरत से ज्यादा रोशनी के आदी हो गए हैं। अगर हम इसका समझदारी के साथ उपयोग करेंगे तो 40 प्रतिशत रोशनी में ही हमारा काम हो जाएगा।

शांताकुमार मौजूदा स्थिति के लिए हमारी विकास की भूख को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं, पिछली शताब्दी या उससे भी ज्यादा समय से हम आर्थिक प्रगति के पीछे भाग रहे हैं। 24 घंटे के समाज को बनाकर अब हमें एहसास हो गया है कि इन प्राचीन संस्कृतियों में इस बात का गहरा ज्ञान था कि हम आसपास के पर्यावरण के साथ कैसे ज्यादा स्वस्थ रखकर उत्पादक तरीके से रह सकते हैं। वह आगे कहते हैं, ‘‘मैं समझता हूं कि अब समय आ गया है कि प्राचीन संस्कृतियों, परंपराओं और प्रथाओं में छिपे ज्ञान की ओर देखा जाए। वहीं से हमें अनेक पर्यावरणीय चुनौतियों के हल मिलेंगे।’’

स संजीव जैन
पर्यावरणविद, अक्षय ऊर्जा व ऊर्जा संरक्षण विशेषज्ञ, मुख्य अभियंता (रिटायर्ड) छत्तीसगढ़ राज्य अक्षय ऊर्जा विकास अभिकरण, रायपुर (छ.ग)