जलवायु परिवर्तन का खाद्यान्न पर प्रभाव

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जलवायु परिवर्तन को हल्के में लेने वाले लोगों के लिए एक डराने वाली खबर सामने आई है। जलवायु परिवर्तन के कारण आपके खाने की थाली जल्द ही खाली हो सकती है। जलवायु परिवर्तन का असर हमारे खाने पर भी पड़ेगा। तूफान, बाढ़, गर्मी, और ठंड के साथ-साथ, जलवायु परिवर्तन हमारे खाने की चीजों को भी प्रभावित करेगा। इसका मतलब है कि आपके पसंदीदा खाने की चीजें जैसे कि कोरियन रेस्टोरेंट में मिलने वाला किमची और चाकलेट, आपको जल्द ही नहीं मिल पाएंगे।

जलवायु परिवर्तन का असर हमारे जीवन के हर पहलू पर पड़ेगा। इसमें हमारे खाने की आदतें भी शामिल हैं। आपके खाने की थाली पर जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है। चावल, गेहूं, मक्का, काफी, चाकलेट जैसी चीजें जो हमें इतनी पसंद हैं, वो भविष्य में कम मिल सकती हैं। बढ़ते तापमान, बाढ़ और मौसम में आने वाले बदलाव इन फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

खेती पर जयवायु परिवर्तन का भयंकर असर
भारत सरकार के कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के हवाले से बताया गया है कि ‘जलवायु परिवर्तन का असर खेती और किसानों के जीवन पर पड़ रहा है। अगर कोई कदम नहीं उठाए गए, तो 2050 तक बारिश पर निर्भर धान की पैदावार में 20ः और 2080 तक 47ः की कमी आ सकती है। वहीं सिंचाई वाले धान की पैदावार में 2050 तक 3.5ः और 2080 तक 5ः की कमी आ सकती है।’

गेंहू पर प्रभाव
चावल के बाद गेहूं का नंबर आता है, जो हमारी रोजमर्रा की जिंंदगी का अहम हिस्सा है। उत्तर भारत में बढ़ता तापमान गेहूं की फसल के लिए खतरा बनता जा रहा है। गेहूं को बुवाई के समय ठंडे मौसम की जरूरत होती है, जो जलवायु परिवर्तन के कारण कम होता जा रहा है। कृषि मंत्रालय के अनुसार, 2050 तक गेहूं की पैदावार में 19.3ः और 2080 तक 40ः की कमी आने की आशंका है।

मक्का भी संकट में
मक्का भले ही चावल और गेहूं जितना लोकप्रिय न हो, लेकिन 1950 के दशक से अब तक इसका उत्पादन 16 गुना बढ़कर लगभग 28 मिलियन टन हो गया है। भारत में मक्का की खेती मानसून (खरीफ) और सर्दी (रबी) दोनों मौसमों में होती है, लेकिन 83ः उत्पादन खरीफ के मौसम में होता है। मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक, 2050 तक खरीफ मक्का की पैदावार में 18ः और 2080 तक 23ः की गिरावट आ सकती है। इसका असर पशुधन और मुर्गी पालन पर भी पड़ेगा, जिन्हें मक्का खिलाया जाता है।

अंगूर पर प्रभाव
दुनिया भर में पसंद की जाने वाली शराब बनाने वाले अंगूर (वाइन ग्रेप्स) भी खतरे में हैं। मालबेक जैसी कई किस्में पहले ही विलुप्त होने की कगार पर पहुँच चुकी हैं। कुछ किस्मों को फिर से खोजा या पुनर्जीवित किया गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसी स्थिति दोबारा नहीं पैदा होगी। खासकर तब, जब दुनिया का कोई भी हिस्सा जलवायु आपदा से सुरक्षित नहीं है। ये अंगूर मौसम में होने वाले छोटे-से-छोटे बदलाव के प्रति भी संवेदनशील होते हैं। 2014 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘वाइन एंड क्लाइमेट चेंज’ में, लेखक एलजे जानसन-बेल ने लिखा है कि जलवायु परिवर्तन के कई नकारात्मक प्रभाव पहले से ही दिखाई दे रहे हैं और शराब बनाने वालों को शराब बनाने के नए तरीके खोजने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

काफी पर असर
काफी पीने वालों के लिए भी बुरी खबर है। इस साल मई में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में वैश्विक काफी उत्पादन खपत से 3ः कम था। आने वाले वर्षों में इसके और भी बदतर होने की आशंका है। विशेषज्ञों का कहना है कि 2030 तक काफी की खेती के लिए उपयुक्त भूमि में भारी कमी आने की संभावना है। ब्राजील, वियतनाम, कोलंबिया और इंडोनेशिया काफी के सबसे बड़े उत्पादक देश हैं। अरबीका और रोबस्टा काफी की दो प्रमुख किस्में हैं। अरबीका दुनिया भर में इस्तेमाल होने वाले काफी ब्लेंड का लगभग 60-70ः हिस्सा है। लेकिन, अनुमानों के मुताबिक, 2050 तक वर्तमान काफी उगाने वाली जमीन का 50ः हिस्सा (खासकर अरबीका की खेती के लिए) अनुपयुक्त हो जाएगा। रोबस्टा भी खतरे में है। वियतनाम रोबस्टा का सबसे बड़ा उत्पादक है, लेकिन 2023-24 के फसल वर्ष में, सूखे के कारण उत्पादन में 20ः की गिरावट का अनुमान है।

चाकलेट पर असर
चाकलेट के दीवाने भी निराश होंगे, क्योंकि कोको के पेड़ पर भी जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है। कोको के बीज से कोकोआ बनाया जाता है और कोकोआ से चाकलेट बनती है। कोको के पेड़ को उगने के लिए एक खास तापमान की जरूरत होती है, जो जलवायु परिवर्तन के कारण मिलना मुश्किल होता जा रहा है। कुछ अनुमानों के अनुसार, 2050 तक कोको उत्पादन में एक तिहाई की कमी आ सकती है। एवोकाडो, जो स्वास्थ्य के प्रति जागरूक लोगों के बीच काफी लोकप्रिय है, खुद ही स्वास्थ्य के लिहाज से अच्छी स्थिति में नहीं है। शोधकर्ताओं के अनुसार,

आलू पर असर
आलू जैसी आम सब्जी भी खतरे में है। जनवरी 2022 में ‘एक्शन अगेंस्ट हंगर’ वेबसाइट पर प्रकाशित एक लेख के अनुसार, 2050 तक आलू का वैश्विक उत्पादन 9ः तक गिर सकता है। आलू समशीतोष्ण जलवायु में सबसे अच्छी तरह उगते हैं। यह फसल गर्मी और पाले दोनों के प्रति संवेदनशील है। यही वजह है कि इस पर खतरा मंडरा रहा है। यह चिंता का विषय है क्योंकि आलू दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण गैर-अनाज फसल है और चावल और गेहूं के बाद तीसरी सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल है। कुल मिलाकर, जलवायु परिवर्तन का असर हमारी खाने की थाली पर साफ दिखाई दे रहा है। हमें इस खतरे को गंभीरता से लेना होगा और ऐसे कदम उठाने होंगे जिनसे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। यह फल गर्मी के तनाव, बाढ़, पानी की कमी, तेज हवाओं और ओलावृष्टि से प्रभावित हो रहा है।

स देवराज सिंह चैहान