गाद प्रबन्धन तब और अब

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सिंधु नदी घाटी सभ्यता (3000 से 1500 ईसवी पूर्व) के अवशेषों के अध्ययन से पता चलता है कि उस दौर के महत्त्वपूर्ण स्थल धौलावीरा में बरसात के पानी को जमा करने के लिए अनेक तालाब बनवाए गये थे। पुरातात्विक और ऐतिहासिक प्रमाणों से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य (321 से 297 ईसवी पूर्व) के शासन काल में तालाबों, बांधों और सिंचाई के साधनों का निर्माण होने लगा था। तमिलनाडु की एक-तिहाई जमीन अब भी पारम्परिक तालाबों (इरी) से सिंचित होती थी। उन तालाबों की भूमिका सिंचाई के साथ-साथ भूजल रीचार्ज और मिट्टी का बहाव और बाढ़ रोकने में होती थी। कर्नाटक में आज भी चालीस हजार से अधिक परम्परागत तालाब अस्तित्व में हैं। राजस्थान के शुष्क इलाके की ढालू धरती से बहते बरसाती पानी को रोककर खड़ीनों (तालाब) का निर्माण किया जाता था। उक्त प्रमाणों से पता चलता है कि भारत के विभिन्न भागों में सदियों से पानी की टिकाऊ संरचनाओं का निर्माण होता रहा है।
जल स्रोतों की गाद
भारत की जलवायु मानसूनी है। मानसूनी जलवायु के असर से चट्टानों में टूट-फूट होती है और रासायनिक प्रक्रिया के कारण वे गाद और मिट्टी में बदलती हैं। गाद और मिट्टी को बरसाती पानी, उनके मूल स्थान से हटाता है और नदी को सौंप देता है। इसी कारण बाढ़ के पानी के साथ बहुत बड़ी मात्रा में गाद पाई जाती है।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि मंद ढ़ाल वाले कछारी इलाके की एक हैक्टर धरती से हर साल लगभग 0.5 टन गाद विस्थापित हो जाती है। मिट्टी के अधिक कटाव वाले इलाकों में एक हैक्टर से हर साल लगभग 26 गुना अधिक तक गाद विस्थापित हो सकती है। उक्त आधार पर कहा जा सकता है कि 5000 हैक्टर कैचमेंट से हर साल मुक्त होने वाली गाद की मात्रा 2500 से लेकर 65000 टन तक हो सकती है। यदि इसका प्रबन्ध नही किया तो वह तालाब में जमा होने लगती है। इस कारण तालाब धीरे-धीरे उथला होता है तथा कालान्तर में अनुपयोगी हो जाता है। अनुभव बताता है कि गाद के प्रबन्ध का काम तालाब के अपस्ट्रीम में या तालाब के भराव क्षेत्र में या दोनों जगह किया जा सकता है।
गाद और पानी का सम्बन्ध
गाद प्रबन्ध को समझने के लिए उसके और पानी के अन्तरंग सम्बन्ध को समझना आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि गाद हमेशा बहते पानी के सानिध्य में यात्रा करती है। पानी का वेग जितना अधिक होगा, गाद का विस्थापन उतना अधिक होगा। यदि पानी का वेग कम होता है या उसके रास्ते में रुकावट या तालाब आता है तो पानी का वेग कम हो जाता है और गाद के भारी कण तालाब में जमा होने लगते हैं। हल्के कणों की यात्रा यथावत चलती रहती है। 888 भारत के परम्परागत जल विज्ञान पर आधारित तालाबों के गाद के प्रबन्ध का काम कैचमेंट से प्रारंभ होता था। इस हेतु, कैचमेंट से आने वाले पानी की निकासी को सुगम बनाया जाता था। गाद को कैचमेंट में रोकने का इन्तजाम किया जाता था। कैचमेंट में पानी की छोटी-छोटी धाराओं को यहाँ-वहाँ मोड़कर, कुछ प्रमुख रास्तों से सिल्ट रोकने की व्यवस्था बनाई जाती थी। इसके लिए बड़े-बड़े पत्थर कुछ इस तरह से जमा किए जाते हैं ताकि उनके बीच से सिर्फ पानी निकले, मिट्टी और रेत आदि पीछे ही जम जाए, छूट जाए। यह पहली व्यवस्था थी।
तालाबों की गाद
सिल्ट प्रबन्ध की दूसरी व्यवस्था श्रृंखलाबद्ध तालाबों में दिखाई देती है। इस व्यवस्था में कैचमेंट से आने वाला गादयुक्त पानी, सबसे पहले सबके ऊपर के तालाब में जमा होता है। इस व्यवस्था के कारण गाद का कुछ अंश सबके ऊपर स्थित तालाब में ही जमा हो जाता है। कम गादयुक्त पानी नीचे के तालाब में पहुँचता है। इस व्यवस्था के कारण नीचे के तालाब में अपेक्षाकृत कम गाद मिलती है। इस व्यवस्था के कारण सबसे नीचे वाले तालाब का पानी काफी हद तक गाद मुक्त होता है। यह व्यवस्था मानसूनी जलवायु वाले क्षेत्रों के लिए बहुत कारगर है। उल्लेखनीय है कि श्रृंखला का सबसे ऊपर का तालाब अकसर छोटा होता है। बडे तालाब की तुलना में उससे गाद निकालना सरल और सुविधाजनक होता है।
कैसे बने रहेंगे तालाब
सिल्ट प्रबन्ध की तीसरी व्यवस्था के अन्तर्गत कैचमेंट से आने वाले गादयुक्त पानी, तालाब के जल संचय और वेस्टवियर से पानी की निकासी के बीच सटीक सन्तुलन बनाया जाता था।
उस सन्तुलन के कारण कैचमेंट से आने वाली गाद का अधिकांश भाग, वेस्टवियर के रास्ते तालाब से बाहर निकल जाता था और तालाब काफी हद तक गाद मुक्त रहता था। इसी कारण परम्परागत तालाब दीर्घजीवी और लगभग गाद मुक्त होते थे। उनकी आयु 500 से 1000 साल होती थी।
सिल्ट प्रबन्ध की चौथी व्यवस्था के अन्तर्गत तालाब से समाज की सहभागिता से हर साल गाद निकाली जाती थी। उस समय गाद के तीन स्टेक-होल्डर थे। किसान, कुम्हार और गृहस्थ। अलग-अलग क्षेत्रों में गाद निकालने का समय अलग-अलग था। गोवा और पश्चिमी घाट के तटवर्ती इलाकों में, यह काम, दीपावली के तुरन्त बाद किया जाता था। उत्तर भारत के बहुत बड़े भाग में यह काम, नव वर्ष अर्थात चौत्र के ठीक पहले तो छत्तीसगढ, उडीसा, बंगाल, बिहार और दक्षिण में बरसात आने के पहले खेत तैयार करते समय, किया जाता था। इस काम को राज और समाज के तालमेल का हिस्सा माना जाता था। गाद समस्या नहीं बन पाती थी। यह चौथी व्यवस्था थी जो गाद के निपटान के लिए हर साल की जाती थी।
बांध और तालाब
आधुनिक काल में बांधों और तालाब का निर्माण, भारत के परम्परागत विज्ञान के स्थान पर पाश्चात्य जलविज्ञान के आधार पर किया जाता है। पाश्चात्य जलविज्ञान के अनुसार, जल संरचनाओं से गाद मुक्ति, पूरी तरह संभव नहीं है। पाश्चात्य जलविज्ञान मानता है कि हर बांध की निश्चित आयु होती है। उसके बाद वह अनुपयोगी हो जाता है। पाश्चात्य जलविज्ञान के अनुसार कैचमेंट में मिट्टी के कटाव को रोकने वाली संरचनाओं के निर्माण से गाद का बनना कम किया जा सकता है। इसके अलावा कृषि पद्धतियों, कैचमेंट में चराई नियंत्रण, सीढ़ीदार खेत बनाकर, रीचार्ज बढ़ाकर या फसल चक्र की मदद से भी गाद जमाव को कम किया जा सकता है। पाश्चात्य जलविज्ञान के अनुसार गाद के हटाने के काम को खुदाई, ड्रेजिंग तथा पानी को विविध यांत्रिक तरीकों से मचाकर भी किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य जलविज्ञान में गाद के प्रबन्ध को वह स्थान या वरीयता हासिल नहीं है जो अन्य घटकों को है। किसी हद तक वह अनदेखी का भी शिकार है।
भारत के परम्परागत जल विज्ञान और पाश्चात्य जलविज्ञान में गाद प्रबन्ध के तरीकों, तकनीकों और विकल्पों को देखकर आसानी से कहा जा सकता है कि गाद के प्रबन्ध के मामले में, हर कसौटी पर, भारत का परम्परागत जल विज्ञान बहुत आगे है। उसकी यह उपलब्धि तकनीकी और कुदरत के साथ समन्वय का जीता-जागता प्रमाण है। गहराते जल संकट के दौर में जब जल संरचनाओं का स्थायित्व बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया हो उस समय यह प्रमाण किसी लाइटहाउस से कम नहीं है।
कृष्ण गोपाल व्यास

जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव एवं खाद्य सुरक्षा

गत वर्ष भारत सरकार ने किसानें की आय को दोगुना करने का एक महत्त्वपूर्ण संकल्प लिया है। जिसके अंतर्गत सभी प्रकार के किसानों की आय को बढ़ाने हेतु विभिन्न प्रकार के निर्णय लिए गए हैं जैसे कि फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाना, सब्सिडी द्वारा किसानों के खातों में न्यूनतम राशि जमा करना एवं कृषि सम्बंधित उपकरणों को रियायती दरों पर उपलब्ध कराना आदि शामिल है। परन्तु सही-मायने में किसानों कि उन्नति का मार्ग कृषि उत्पादकता में वृद्धि द्वारा ही प्रशस्त हो सकता है। आज के युग में अधिक उपज वाली किस्में, पर्याप्त मात्रा में रासायनिक उर्वरकों की उपलब्धता तथा दक्ष व उन्नत कृषि वैज्ञानिक पद्दतियों का उपयोग कर, देश ने खाद्यानों की उत्पादकता में आत्म निर्भर होने का आयाम प्राप्त कर लिया है।
लेकिन जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ लगातार बढती आबादी, सीमित भूमि संसाधन व अधिक से अधिक जल की आवश्यकता, इस निरंतर वृद्धि में अवरोध पैदा करते जा रहें हैं। हालांकि पिछले वर्षों में भारत देश खाद्यानों के उत्पादन में वृद्धि दर्ज कर रहा हैं परन्तु खाद्यानों की उत्पादकता में बढ़त बनाए रखना एक चुनौतिपूर्ण कार्य है विशेषकर जब जल संसाधनों की उपलब्धता निरंतर घटती जा रही हो।
खाद्य उत्पादन और जल
इस संदर्भ में उपलब्ध आंकड़ों व जानकारी के आधार पर एक विश्लेषण किया गया है जो यह दर्शाता है कि भारत की जनसंख्या विश्व जनसंख्या का लगभग 17 प्रतिशत है जबकि भूमि क्षेत्रफल में भारत विश्व क्षेत्रफल का केवल 2.4 प्रतिशत ही है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, 1950-51 से अब तक, भारत में खाद्यानों का उत्पादन व सिंचित प्रतिशत क्षेत्रफल में समानुपातिक सम्बन्ध पाया गया है। अतः खाद्यानों के उत्पादन में जल संसाधनों की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ओ) के अनुसार विश्व में कुल जल प्रयोग का 70 प्रतिशत ही कृषि के लिए उपयोग में लाया जाता है परन्तु भारत में यह आंकड़ा 1990 में 87 प्रतिशत व 2010 में 85 प्रतिशत है। जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर कम होते जा रहे हैं अतः सिंचाई हेतु सतही जल का विस्तार लगभग नगण्य है। ऐसी परिस्थिति में, विशाल क्षेत्रफल को सिंचित करने के लिए भूजल दोहन ही एक मात्र विकल्प बच जाता है जिसके फलस्वरूप देश के अधिकतर हिस्सों में भूजल स्तर में गिरावट दर्ज की गई है। वर्षा की अनियमितता, इस समस्या को और प्रज्ज्वलित कर रही है अतः सिंचाई की लिए अधिक ऊर्जा व धन का व्यय होना निश्चित है। प्रायः जन समुदाय में यह धारणा रहती है कि जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है जिसके फलस्वरूप इस संसाधन का बहुत दुरुपयोग हुआ है। भूजल के अति दोहन से ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है कि भूजल स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। वह दिन दूर नहीं जब जल के अभाव में खाद्यानों के उत्पादन को लेकर एक विकट समस्या पैदा हो जाएगी, ऐसी विकट स्थिति से बचने की लिए उपलब्ध जल संसाधनों का प्रबंधन अति आवश्यक है। इस विषय में कुछ सुझाव प्रस्तुत किए गए हैं जिनको कार्यान्वित कर खाद्यानों के उत्पादन में स्थिरता कायम रह सकती है।
जनसंख्या वृद्धि की चुनौती
जनसंख्या वृद्धि व खाद्यानों की आवश्यकता समानुपातिक होती हैं। जनगणना आकड़ों के अनुसार, सन 2011 में, भारत की जनसंख्या 1.21 अरब हो चुकी है, जो कि विश्व जनसंख्या का 17.31 प्रतिशत थी। जब कि भूमि क्षेत्रफल के हिसाब से भारत विश्व क्षेत्रफल का केवल 2.4 प्रतिशत है। हांलाकि पिछले दशक में जनसंख्या वृद्धि दर में कमी दर्ज की गई है । फिर भी, एक अनुमान के अनुसार, सन 2024 में भारत विश्व स्तर पर जनसंख्या के क्षेत्र मंच प्रथम स्थान प्राप्त कर लेगा। भारत में तीव्र जनसंख्या वृद्धि के विभिन्न कारण है। जिसमें गरीबी, निरक्षरता व उच्च प्रजनन दर आदि मुख्य हैं । सन 1950-51 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में कुल बुआई क्षेत्रफल 118.75 मिलियन हेक्टेयर था जो कि सन 2010-11 में 141.56 मिलियन हेक्टेयर हो गया था। इस प्रकार से 60 वर्षों में, बुआई क्षेत्रफल में लगभग 19.21 प्रतिशत कि वृद्धि दर्ज हुई है। जब कि इसी दौरान, जनसंख्या के क्षेत्र में यह वृद्धि 235 प्रतिशत आंकी गई है। अतः बुआई क्षेत्रफल वृद्धि दर व जनसंख्या वृद्धि दर में बहुत अधिक अंतर है। जिसके फलस्वरूप, जलवायु परिवर्तन व अन्य विपरीत परस्थितियों के साथ साथ जनसंख्या वृद्धि, खाद्यानों की आपूर्ति पर लगातार दबाव बनाए रखती है।
जल संसाधनों की भूमिका
सन 2016-17 में भारत ने 275.11 मिलियन टन खाद्यानों का उत्पादन कर एक नई उपलब्धि हासिल की है। जो कि सन 1950-51 के आंकड़ों के आधार पर 441 प्रतिशत अधिक है। भारत में खाद्यानों कि सूची में गेहूं, चावल, दालें व को रस अनाज जैसे ज्वार, मक्का व बाजरा आदि मुख्य हैं। 1980 व 1990 के दशकों में खाद्यानों के उत्पादन में महत्त्वपूर्ण वृद्धि दर्ज की गई है। जिसके लिए अधिक उपजाऊ बीज, प्रभावी उर्वरकों द्वारा फसलों का पोषण व उपयुक्त मात्रा में सिंचाई जल की उपलब्धता मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं। स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि भारत में जैसे जैसे सिंचाई क्षेत्रफल में वृद्धि होती गई वैसे वैसे ही खाद्यानों के उत्पादन में भी वृद्धि होती गई। अतः खाद्यानों के उत्पादन व सिंचाई क्षेत्रफल में सामानांतर वृद्धि से यह सिद्ध होता है कि खाद्यानों के उत्पादन में जल संसाधनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। खाद्यानों के उत्पादन में जल संसाधनों की भूमिका को इस प्रकार भी दर्शाया जा सकता है कि सिंचाई क्षेत्रफल में निरंतर वृद्धि की कारण खाद्यानों की उत्पादन दर में भी निरंतर वृद्धि दर्ज कि गई है। आंकड़ों की अनुसार 1950-51 से 2016-17 तक खाद्यानों की उत्पादन दर में 522 से 2129 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर तक का सुधार दर्ज किया गया है। अतः खाद्यानों के उत्पादन में जल संसाधनों की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव
हाल के कुछ वर्षो में यह पाया गया है कि भारत वर्ष ही नहीं अपितु पूरे विश्व में पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ रहा है। इस जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण मानवीय प्रक्रियाएं समझी जा रही है जैसे फासिल ईंधन का अत्याधिक उपयोग, कार्बन डाई आक्साइड व ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन तथा वनों की कटाई आदि। वैज्ञानिकों का यह मानना है कि इस प्रकार जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि व जल संसाधनों पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। क्योंकि जलवायु परिवर्तन के साथ अनावृष्टि (सूखा), जंगलों में आग व जल की गुणवत्ता में गिरावट की प्रबल सम्भावनाएं रहती हैं। पिछले कुछ दशकों से भारत में वर्षा जल की मात्रा में गिरावट दर्ज की गई है। जिसके कारण भूजल संभरण में कमी व कृषि पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। साथ ही यह भी देखा गया है कि भारी वर्षा की आवृत्ति निरंतर बढ़ती जा रही है जिसके फलस्वरूप अचानक बाढ़ आना व फसलों का नुकसान संभावित है।
यदि वर्ष 2019 का ही उदाहरण ले लिया जाए तो यह प्रतीत होता है कि इस वर्ष सामान्य से बहुत अधिक वर्षा हुई है। परन्तु आंकड़ों के आधार पर यह सामान्य से केवल 5 प्रतिशत अधिक है। यदि वर्षा जल वितरण का विस्तार से विश्लेषण किया जाए तो देश भर में अति वर्षा जल क्षेत्र, सामान्य वर्षा जल क्षेत्र व न्यून वर्षा जल क्षेत्र से अधिक है। इस वर्ष सामान्य से अधिक वर्षा होने के बावजूद भी देश में कृषि उत्पादन का अनुमान कम आंका गया है। क्योंकि अधिक वर्षा व कम वर्षा क्षेत्रों में फसलों कि उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
जलवायु परिवर्तन के कारण आहिस्ता-आहिस्ता ग्लेशियरों द्वारा जल की आपूर्ति में भी कमी आती जा रही है। जिसके फलस्वरूप नदियों में जल स्तर प्राय कम होता चला जा रहा है। निरंतर जनसंख्या वृद्धि के कारण जल की अधिकाधिक मांगवश ज्यादातर रीवर बेसिनों में उपलब्ध जल की मात्रा में कमी आती जा रही है। अतः जलवायु परिवर्तन से जल संसाधनों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है जिसके फलस्वरूप किसानों की आय पर अनिश्चितताओं का संकट गहरा हो रहा है।
भूजल स्तर में गिरावट
कृषि में सिंचाई जल का बहुत बड़ा महत्व है। किसानों में प्राय यह भ्रान्ति रहती है कि भूजल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। जिसके फलस्वरूप भूजल का अधिक से अधिक दोहन होना स्वाभाविक है। सिंचाई के लिए विभिन्न जल प्रयोग का विवरण में विस्तृत रूप से दिया गया है। भूजल अति दोहन प्रक्रिया के कारण भारत के विभिन्न क्षेत्रों के भूजल स्तर में काफी गिरावट दर्ज की गई है।
केंद्रीय भूजल बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार भूजल उपयोग का पैटर्न राष्ट्रीय स्तर पर विषम आंका गया है। जिसके कारण देश के कुछ क्षेत्रों में भूजल स्ट्रेस कंडीसन महसूस किया गया है। देश भर में केंद्रीय भूजल बोर्ड के 6584 आंकलन यूनिट्स के आंकलन के आधार पर 1034 अति दोहन वर्ग में 253 विकट, 681 अर्ध विकट व 4520 सुरक्षित वर्ग में पाएं गए हैं। देश के उत्तरी पश्चिमी राज्यों में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पश्चिमी राज्यों में राजस्थान व गुजरात तथा दक्षिणी राज्यों में कर्नाटक, तमिलनाडु व तेलंगाना के अधिकतर भागों में अत्यधिक दोहन के कारण भूजल स्तर में निरंतर गिरावट होती जा रही है। अतः इन क्षेत्रों में नलकूप लगवाना मात्र ही काफी खर्च का सौदा बन गया है।
पिछले कुछ दशकों के तुलना में भारत में छोटे किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है। अतः इस प्रकार के खर्च की भरपाई भी उनके लिए कष्टकारी होती है। आज भी भारत के हर क्षेत्र के किसानों को बिजली की सुविधा उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में किसानों को डीजल द्वारा चालित उपकरणों का प्रयोग करना पड़ता है चूंकि डीजल के दामों में निरंतर वृद्धि होती जा रही है व भूजल स्तर में भी निरंतर गिरावट दर्ज हो रही है। अतः ऐसी स्थिति में फसलों की सिंचाई पर व्यय और अधिक बढ़ जाता है।
जल संसाधन मंत्रालय के एक आकलन के अनुसार यदि भूजल का स्तर 1 मीटर ऊपर उठता है तो प्रति घंटा 0.4 किलो वाट ऊर्जा की बचत हो जाती है। यदि भूजल स्तर में निरंतर गिरावट होती है तो गिरावट के अनुसार उतनी ही अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होगी। गत वर्षों में भारत के अधिकतर क्षेत्रों के भूजल के स्तर में गिरावट दर्ज की गई है। जिसके फलस्वरूप सिंचाई के लिए अधिक ऊर्जा अर्थात अधिक धन का व्यय होना निश्चित है।
तकनीकों की आवश्यकता
अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार विश्व में कुल जल प्रयोग का 70 प्रतिशत कृषि के लिए उपयोग में लाया जाता है। परन्तु भारत इस अंतरराष्ट्रीय चलन का पालन न कर कृषि क्षेत्र में बहुत अधिक जल का प्रयोग कर रहा है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार सन 2000 से 2010 तक भारत में कृषि के लिए लगभग 85 प्रतिशत जल का प्रयोग किया है।
कृषि क्षेत्र में जल उपयोग दक्षता का अमल में लाना जल संसाधन प्रबंधन के लिए अति आवश्यक है। इस प्रक्रिया को अपनाकर बहुत से देशों ने अधिक उत्पादन के साथ-साथ जल संस्थानों का भी संरक्षण कर लिया है। उपरोक्त तालिका में चीन द्वारा जल उपयोग दक्षता को अपनाकर एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस प्रकार की उपलब्धियां कृषि क्षेत्र में जल उपयोग दक्षता बढ़ाने के विभिन्न उपायों को कार्यान्वित कर ही प्राप्त की जा सकती हैं।
उपरोक्त विश्लेषण यह दर्शाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। कृषि व कृषि से सम्बंधित व्यवसाय काफी हद तक जलवायु पर निर्भर करते हैं। अर्थात चरम जलवायु परिस्थितयों जैसे असामयिक तापमान में वृद्धि, बहुत अधिक या बहुत कम जल वर्षा (बाढ़/सूखा) कृषि उत्पाद पर विपरीत प्रभाव डालती हैं। भारत में हिमालय व संलग्न क्षेत्र अपने ग्लेशियर के कारण नदियों जैसे गंगा, यमुना व ब्रह्मपुत्र आदि का मुख्य जल स्रोत होता है परन्तु निरंतर जलवायु परिवर्तन के करण ग्लेशियर का क्षेत्रफल कम होता जा रहा है। जिसके फलस्वरूप सतही जल कि उपलब्धता निरंतर कम होती जा रही है अतः कृषि उत्पादकता बनाए रखने के लिए सिंचाई हेतु अन्य संसाधन जैसे भूजल का अधिक निष्कर्षण किया जाना स्वाभाविक है। परन्तु भूजल स्तर में निरंतर गिरावट होने के कारण किसानों व खाद्य सुरक्षा के लिए निरंतर एक चुनौती बनी रहती है।
जलवायु परिवर्तन व निरंतर बढ़ती जनसंख्या उपलब्ध संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव डाल रहें है। अतः खाद्यानों के उत्पादन में वृद्धि के लिए अधिक उपज वाली किस्में व बेहतर सस्य वैज्ञानिक पद्दतियों के अलावा जल संसाधनों के उचित प्रबंधन की भी अति आवश्यकता है। जल संसाधन प्रबंधन द्वारा उन क्षेत्रों में सिंचाई जल उपलब्ध कराने के प्रयास करने चाहिए जहां फसलों के लिए जल की उपलब्धता नहीं है। कम वर्षा क्षेत्रों में असामयिक अति वर्षा की घटनाओं को देखते हुए उन क्षेत्रों में जल संचयन के लिए तालाबों व झीलों का निर्माण किया जाना चाहिए। देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जल उपलब्धता के आधार पर ही फसलों की बुआई का समय व फसलों के प्रकार का चयन आवश्यकतानुसार करना चाहिए इस प्रकार के सामजस्य से जलवायु परिवर्तन व जल आभाव की स्थिति के विपरीत प्रभाव को भी कम किया जा सकता है। अतः जल संरक्षण को ध्यान में रखते हुए जल संसाधन प्रबंधन के प्रभावी व दक्ष समाधान की आवश्यकता है।
इस प्रकार की योजनाएं सिंचाई जल उपयोग दक्षता, कम जल अपव्यय व जल की गुणवत्ता के संरक्षण को केंद्रित कर सुनियोजित व प्रभावी ढंग से कार्यान्वित किया जाना चाहिए। व योजनाओं को अधिक प्रभावी बनाने के लिए जन भागीदारी का होना अति आवश्यक है जिसके फलस्वरूप भारत के किसानों की आय में बढ़ोतरी के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम कर खाद्य सुरक्षा का लक्ष्य भली-भांति प्राप्त किया जा सकता है।
सुनील कुमार त्यागी एवं भूपिन्द्र सिंह

नैनो टेक्नोलॉजी से जल प्रदूषण नियंत्रण

कहना न होगा कि आज नैनो की सूक्ष्मता की प्रौद्योगिकी ने कृषि, पर्यावरण, चिकित्सा, इंजीनियरी, जैव-प्रौद्योगिकी, सूचना-प्रौद्योगिकी इत्यादि अनेक क्षेत्रों में संभावनाओं के द्वारा खोल दिए हैं। भविष्य में इसकी असंख्य संभावनाएं हैं, जिनको कार्यरूप देना एक बड़ी चुनौती है। विकसित और विकासशील देशों के वैज्ञानिक इसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं।
नैनो परिमाप पर आधारित विज्ञान एवं अभियांत्रिकी, रचनात्मक पदार्थों को क्रियात्क संरचनाओं तथा उनके गुणधर्मों को अभिव्यक्त करने वाली अतिसूक्ष्म वैज्ञानिक, क्रमबद्धता को अत्याधुनिक शब्दों में नैनो टेक्नोलॉजी कहते हैं। पृथ्वी एवं जीव-जगत के निर्माण में प्रारंभिक अवस्था से ही इसकी उपयोगिता रही है। जीव के परिप्रेक्ष्य में डीएनए की द्विकुंडली का व्यास लगभग 2 नैनो मीटर तथा राइबोसोम का व्यास 25 नैनो मीटर के बराबर होता है।
मानव निर्मित नैनो-आकृति पदार्थों की नूतन उत्पत्ति एक ऐसी डोमेन आकार की अवयवी कणिकाएं हैं, जिनके द्वारा पर्यावरण अभियांत्रिकी में अकल्पनीय क्रांति आने की प्रबल संभावनाएं हैं। परिणामस्वरूप विभिन्न पर्यावरणीय क्षेत्रों में नैनो कणों एवं नैनो-नलिकाओं का कुशलतापूर्वक अनुप्रयोग हो रहा है।
नैनो प्रौद्योगिकी
नैनो शब्द मूलतः ग्रीक भाषा का है, जिसका अर्थ अति सूक्ष्म या अति बौना होता है। मापन की अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में नैनो का तात्पर्य अरबांश से है, जिसका मान 10.9 मीटर के बराबर होता है। नैनो मीटर कितना सूक्ष्म है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यह महज एक आलपिन की घुंडी के दस लाखवें हिस्से के बराबर होता है।
नैनो जगत की अवधारणा सबसे पहले प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी एवं नोबेल पुरस्कार विजेता रिचर्ड फैनमेन ने की थी। नैनो टेक्नोलॉजी जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करने में सक्षम है। नैनो-विज्ञान की व्यापकता एवं विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले प्रभाव को देखते हुए इसकी अनेक शाखाएं बन गई हैं। इस क्षेत्र में विकास के साथ-साथ नई शाखाओं का जन्म भी निरंतर हो रहा है। आज जो नैनो टेक्नोलॉजी पर शोध हो रहे हैं उनका केन्द्र बिन्दु दूसरी तकनीकों के साथ नैनो का समन्वय है। वास्तव में ऐसी अनेक प्रौद्योगिकियां हैं, जहाँ आज नैनोकण, नैनो पाउडर तथा नैनो नलिकाओं का सफलता से उपयोग हो रहा है। पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए भी नैनोप्रोद्योगिकी अत्यंत उपयोगी है। वास्तव में नैनो जैसे सूक्ष्म स्तर पर पदार्थ का व्यवहार बिल्कुल ही अलग होता है। उसकी रासायनिक-प्रतिक्रिया क्षमता बहुत तीव्र हो जाती है। उसकी गुणवत्ता बढ़ जाती है। वैज्ञानिकों ने नैनो-तकनीक से ऐसी प्रक्रिया विकसित की है, जिससे हमारे पर्यावरण में व्याप्त हानिकारक रसायनों को समाप्त करने में मदद मिलेगी।
पर्यावरण सुरक्षा में कारगर
पर्यावरण की बात करें तो हमारे चारों ओर जो आवरण हैं जिसमें वायुमंडल, जलमंडल, और स्थलमंडल आते हैं तथा जो जीव धारियों पर सीधा या परोक्ष रूप से प्रभाव डालता है, पर्यावरण कहलाता है। वैसे तो पर्यावरण के सभी घटक महत्वपूर्ण हैं, किन्तु, इनमें से जल की महत्ता कुछ विशेष ही है। पृथ्वी का तीन-चौथाई भाग में जल है और जीवित पदार्थों का 70 प्रतिशत भाग जल का ही बना हुआ है। इसलिए जल को अमृत कहा गया है। दूसरे शब्दों में जल ही जीवन है। सभी जीवधारियों के लिए जल अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। जल में बहुत से खनिज तत्व, कार्बनिक-अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली होती हैं। यदि जल में घुले पदार्थ आवश्यकता से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाते हैं जो साधरणतः जल में उपस्थित नहीं होते हैं, तो जल हानिकारक हो जाता है और प्रदूषित जल कहलाता है।
जल में प्रदूषण का कारण औद्योगिक संस्थानों से निकले अपशिष्ट पदार्थ, कृषि के लिए इस्तेमाल हो रही रासायनिक खाद, कीटाणुनाशक पदार्थ, अपतृणनाशी पदार्थ, दूसरे कार्बनिक पदार्थ एवं सीवेज इत्यादि है। इन सभी प्रदूषकों के कारण जल अशुद्ध हो जाता है तथा पीने लायक नहीं रहता। अशुद्ध जल के सेवन से अनेकों बीमारियां जैसे-पेचिश, पीलिया, टाइफाइड आदि होती है।
जल स्वच्छ रखने में
आज वैज्ञानिक नैनो टेक्नोलॉजी का उपयोग करके जल-प्रदूषण को नियंत्रित करने में सफल हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि प्रदूषित जल को शुद्ध करने की पारम्परिक विधियॉं उतनी कारगर सिद्ध नहीं हुई हैं जितनी की आवश्यकता है। इसके अलावा जल-प्रदूषण नियंत्रण की पुरानी विधियों में खर्च भी अधिक आता है।
हाल ही में दक्षिण आस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों पीटर मैजवस्की तथा च्यूपिंग चौन ने सिलिका के नैनो-कणों का उपयोग करके प्रदूषित जल को शुद्ध करने में सफलता प्राप्त की है। उनकी यह विधि पारम्परिक विधियों से अधिक सरल, कारगर एवं कम खर्चीली सिद्ध हुई है। इस विधि में सिलिका के अति-सूक्ष्म क्रियाशील नैनो-कणों द्वारा प्रदूषित जल में उपस्थित विषैले रसायनों, हानिकारक बैक्टीरिया तथा विषाणुओं को अधिक प्रभावशाली ढंग से नष्ट किया जाता है।
नैनो टेक्नोलॉजी का प्रयोग करके प्रदूषित जल में उपस्थित औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों को भी आसानी से दूर किया जा सकता है। नैनो-कणों का उपयोग करके प्रदूषित अपशिष्टों को रासायनिक अभिक्रिया द्वारा अहानिकारक पदार्थों में परिवर्तित कर दिया जाता है। जिससे कि जल शुद्ध हो जाए। नैनो प्रोद्योगिकी का उपयोग करके अशुद्ध जल में उपस्थित हानिकारक लवणों तथा धातुओं को भी प्रदूषित जल से मिटाया जा सकता है।
इस विधि में डिआयोनाइजेशन विधि द्वारा नैनो साइज फाइबर्स का उपयोग करके जल को शुद्ध किया जाता है। इस तकनीक से जल के शुद्धिकरण की प्रक्रिया अधिक सरल, सस्ती एवं प्रभावशाली होती है। इसके अतिरिक्त इसमें ऊर्जा भी कम लगती है। आज हम लोग जिन स्टैण्डर्ड फिल्टर्स का प्रयोग कर रहे हैं उनसे अति-सूक्ष्म विषाणु सम्पूर्ण रूप से नष्ट नहीं होते हैं। आज शोधकर्ताओं ने नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा ऐसे फिल्टर्स विकसित कर लिए हैं जो इन अतिसूक्ष्म हानिकारक विषाणुओं को समाप्त करके जल को संपूर्ण स्वच्छ बनाने में सक्षम हैं।
जल-प्रदूषण नियंत्रण के क्षेत्र में ही वैज्ञानिकों ने लौह नैनोकणों का प्रयोग करके भूगर्भ जल में पाये जाने वाले हानिकारक रासायनिक पदार्थ कार्बन-टैट्राक्लोराइड को भी प्रदूषित भूगर्भ जल से हटाने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आज वैज्ञानिकों एवं शोधकर्ताओं ने नैनो टेक्नोलॉजी का प्रयोग करके जल-प्रदूषण को समाप्त करने में असाधारण सफलता प्राप्त की है।
विकसित देशों में इस प्रोद्योगिकी का प्रयोग सफलतापूर्वक हो रहा है। विकासशील देश भारत में भी नैनो टेक्नोलॉजी आधारित अनुसंधान तेजी से हो रहा है। वह दिन दूर नहीं कि जब हम भारतीय भी इस प्रौद्योगिकी की उपयोग करके जल-प्रदूषण की समस्या से संपूर्ण रूप से मुक्त हो सकेंगे। उल्लेखनीय है कि नैनो टेक्नोलॉजी ऐसी विद्या है जो नैनो अर्थात अति सूक्ष्म होकर भी अत्यन्त प्रभावी बनती जा रही है एवं जिसमें भौतिक, रसायन, जीव विज्ञान तथा इंजीनियरिंग की अनेकों उपलब्धियाँ गागर में सागर की भांति समाहित हैं।
प्रीति सिंह