भारत में कचरा प्रबंधन की चुनौतियाँ और अवसर

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भारत एक विशाल देश है, जहाँ करीब 1 अरब से अधिक लोग रहते है जो विश्व का दूसरा सबसे घनी आबादी वाला देश है। आज इसी बढती हुई आबादी से भारत में कई समस्या उत्पन्न हुई है जिसमें सबसे बड़ी समस्या में एक स्वछता है। आज भारत में मूल भूत सुविधाएँ होने के बावजूद भी जगह जगह फैला कचरा देश की सबसे बड़ी समस्या बन गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वछता अभियान से कुछ हद तक देश में कचरा कम हुआ है, लेकिन अभी भी देश को पूरी तरह स्वच्छ करने के लिए हमें बहुत काम करना होगा।
निचले स्तर पर क्या तस्वीर है ?
आज भी हमारे गली मोहल्लो में कही पालीथिन, थूके हुए पान के निशान, खाली बोतले, बचा हुआ खाना सड़को पे देखने को मिल जायेगा । नगर निगम की गाड़ियाँ कचरा उठाने आती है। लेकिन सही डंपिंग जोन और कचरा प्रबंधन के ना होने के कारण हर प्रकार का कचरा डंपिंग जोन मे डाल दिया जाता है। डंपिंग जोन मे जमे हुए कचरे की भी भरमार रहती है। जिसमे बैटरीज,मेडिकल सामग्री और इंडस्ट्रियल कचरा विषैले पदार्थ निकलते है जो वातावरण और जन जीवन को हानि पहुँचाते है। ऐसे में भारत को कचरे का सही से डंपिंग एंड रीसाइक्लिंग की तकनीकों को जोर देना पड़ेगा। और विकासशील देशो जैसे जर्मनी, अमेरिका से तरीके सीखने पड़ेंगे। वर्ल्ड बैंक के अनुसार भारत 277 मिलियन कचरा हर साल पैदा करता है वर्ष 2016 के रिपोर्ट के हिसाब से। जो की 80% भाग केवल भारत का है।
ठोस कचरा प्रबंधन में भारत पीछे क्यों?
आमतौर पर यहाँ तस्वीर भारत मे हर गलियों की है। प्रशासन द्वारा कूड़ेदान के डिब्बे आपको दिखेंगे पर इतना कचरा उसके अंदर है और कितना बहार ये आप इस तस्वीर मे देख सकते है।। अगर हम जर्मनी की बात करे वहां आपको ऐसी खराब बदबूदार गलियां देखने को नहीं मिलेगी। वहां हर गली, सड़क,सवार्जनिक जगहों में किसी प्रकार की गंदगी नहीं देखने को मिलेगी
वर्ष 2016 में जर्मनी दुनिया का प्रथम स्थान वाला कचरा रीसाइक्लिंग वाला देश बन गया है। अगर हम जर्मनी का ही उदाहरण ले तो 1980 से सर्कुलर इकानामी (सर्कुलर इकोनामी अप्रोच, जिसमें बिजली और अन्य उत्पाद कचरे का उपयोग, रिसाइकल कर पैदा किया जाता है ताकि इससे इकानमी बढ़े ) की ओर केंद्रित रहे। 1990 से ही वेस्ट मैनेजमेंट से रिसोर्स मैनेजमेंट की और उनकी कार्य-नीति बननी शुरू हुई थी। जर्मन लोगो को नैतिक रूप से यहाँ समझ थी की दुबारा इस्तेमाल में लाये जाने वाले वस्तुओ को कचरे से अलग करना ही असल समझदारी है। वैसे तो बहुत से नियम जर्मनी में लागू हुए है पर कुछ विशेष बातें है जो हर भारतीय को चौंका देगी और हमें उससे सकारात्मक रूप से कुछ सीखना चाहिए।
भारत में आप कही पर भी कचरा फेक के चले जाते है और सोचते भी नहीं। लेकिन जर्मनी और उसके जैसे देशो में लोग आपको सरे आम टोकते है जिससे आपको शर्म का सामना करना पड़ता है इतना ही नहीं आपको रूपए1,800 का भारी जुर्माना भी चुकाना पड़ता है। एक पहलू यहाँ भी है की अगर हम जर्मन लोगो की तरह व्यक्तिगत रूप से अपनी जिम्मेदारी समझे और आसपास के इलाकों को साफ रखे तो भारत भी जर्मनी जैसा स्वच्छ रहेगा।
जर्मनी की कचरा छँटाई प्रणाली
पीला /नारंगी बिन – प्लास्टिक और धातुओं के लिए।
नीला बिन – कागज और कार्ड बोर्ड के लिए और पैकेजिंग वाले कर्टन्स।
लाल बिन – प्लास्टिक और जैसे पदार्थ।
हरा बिन – घर के कच्चे जो प्राकृतिक रूप से सड़ते है।
भूरा बिन – प्राकृतिक रूप से सड़ने वाले पदार्थ।
ग्रेकला बिन – पदार्थ जो किसी भी श्रेणी में ना आता हो वो इस बिन में जायेगा। जैसे चिकना पिज्जा बाक्स ।
इनको लगाने मुख्य उद्देश्य यहाँ है की घर से ही कचरे को अलग अलग कर लिया जाये, ताकि ट्रीटमेंट सेंटर में अलग ना करना पड़े और कोई गलत पदार्थ भी ना हो। ऐसा करने से पैसा, वक्त और श्रमशक्ति भी कम लगती है। लेकिन भारत में न ही घर में कचरे को अलग किया जाता है ना ही फेंकते हुए, ना जगह देखते हुए, लोग इतना आलस दिखाते है की कचरे के डिब्बे में कम सड़क पर ज्यादा फैला मिलता है।
पीने वाले पदार्थ जिनकी बोतल भारत मे हम हर जगह फेकी हुई दिखती है। वही जर्मनी में बोतलों को जमा करने की मशीनें लगी है। जिन्हे ‘‘च्िंदक’’ कहा जाता है। जैसे ही आप बोतल जमा करेंगे आपको उसके कुछ धनराशि भी मिलती है। इस तरह के कार्यशैली से बोत्तले सीधे दोबारा इस्तेमाल के लिए फैक्टरियों मे पहुंच जाती है।
वर्ष 2000 से जर्मनी द्वारा सकारात्मक रूप से वेस्ट कंट्रोल और इकानमी में बढ़ोतरी देखी जा सकती है। इसका मूल कारण सख्त कानून है। वहां ठीक तरह से अलग-अलग ट्रीटमेंट सेंटर बनाए गए है, जो रासायनिक पदार्थ वातावरण को हानि पंहुचा सकते है, उन्हें सबसे पहले ट्रीटमेंट से निष्क्रिय किया जाता है। फिर इस्तेमाल आने वाले वस्तुओ को छांट कर बेकार हिस्से को धरती के नीचे डंप किया जाता है।
लोगो की अहम भागीदारी भी है जिहोने सरकार के नियमों का पालन किया। ट्रीटमेंट सेंटरो से वेस्ट मटेरियल का ट्रीटमेंट और रीसाइक्लिंग राष्ट्रीय स्तर पर ढंग से किया गया है । जिससे 15 वर्ष में जर्मनी फिर से धनी और स्वच्छ देश बन गया है।
हालांकि ऐसा कुछ देखने को या अभी तक भारत में सोचा ही नहीं गया है। इससे निपटने का उचित उपाए यही है कि टिकाऊ लंबी अवधी तक चलने वाले सामान ही खरीदें। रासायनिक उत्पाद जैसे बैटरीज, प्लास्टिक और बिजली वाले सामानों को वापस फैक्ट्री में रीसाइक्लिंग के लिए नए तरीके देखने पड़ेंगे।
शशांक नैथानी