दल्ली से सटे नोएडा में एक दुकानदार और एक ग्राहक के बीच बहस चल रही थी। दरअसल ग्राहक साहब आफिस से घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उनकी बीवी का फोन आया, ‘दूध लेते आइएगा’। वो दूध लेने के लिए घर के बगल में किराने की दुकान पर पहुंचे। दुकानदार ने दूध का पैकेट निकाल कर मेज पर रख दिया। ग्राहक ने प्लास्टिक की थैली में दूध देने की मांग की।
जवाब में दुकानदार ने कहा, ‘सरकार ने प्लास्टिक बैन कर दिया है। अब दुकानों में प्लास्टिक मिला तो लाखों का जुर्माना लगेगा। हमने प्लास्टिक रखना बंद कर दिया है।’ ग्राहक ने गुस्से में कहा, ‘दूध भर कर ले जाने वाले प्लास्टिक पर बैन लगा दिया, लेकिन पैकिंग वाले प्लास्टिक का क्या? दूध भी तो प्लास्टिक में ही पैक हो रहा है।’ इतना बोलकर ग्राहक दूध का पैकेट हाथ में उठा कर वहां से निकल लिए।
लेकिन उनके इस सवाल ने समाज की एक बड़ी सच्चाई उजागर की। देश के दो बड़े राज्यों – उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में प्लास्टिक पर पाबंदी लगा दी गई है। यह पाबंदी सिर्फ ज्यादा नुकसानदेह मानी जाने वाली प्लास्टिक पर लगाई गई है। पर पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक भी कम नुकसानदायक नहीं। आखिर इस प्लास्टिक की समस्या से कैसे निपटा जाए?
इस समस्या का हल है – जीरो वेस्ट वाला घर। जी हां! आप सही समझे हैं। जीरो वेस्ट वाला घर यानी जहां से कूड़ा ही न निकले। कोई सामान फेंकने वाला न हो। क्या आप एक साफ सुथरे ऐसे घर की कल्पना कर सकते हैं जिसमें कोई कूड़ेदान न हो?
अगर घर में पति-पत्नी के साथ छोटे बच्चे भी रहते हों तब तो शायद ये कल्पना संभव ही न हो। लेकिन बेंगलुरू में रहने वाली दुर्गेश नंदनी के लिए ये बिलकुल भी मुश्किल नहीं। दुर्गेश की दो बेटियां है। छोटी बेटी सिर्फ दो महीने की और दूसरी पांच साल की। बावजूद इसके वो अपने घर को बिना कूड़ेदान वाला घर बनाने में कामयाब रही है।
बेटी के सवाल
इसकी शुरुआत तीन साल पहले हुई। दुर्गेश याद करते हुए बताती हैं, ‘मैं अपनी बड़ी बेटी के साथ कहीं जा रही थी। रास्ते में हमने दुकान से सामान खरीदा, सामान को प्लास्टिक बैग में लेने की जगह हमने सीधे हाथ में लिया। हमने दुकानदार को प्लास्टिक देने से मना किया था। बेटी ने दुकान से बाहर निकलते ही पूछा मम्मा आपने प्लास्टिक क्यों नहीं लिया।’
बेटी का सवाल जितनी फुर्ती से आया दुर्गेश ने भी जवाब देने में उतनी ही चुस्ती दिखाई। तुरंत कहा, ‘बेटा, प्लास्टिक गलता नहीं है। इसे इधर उधर फेंक दें और जानवर खाएं तो उन्हें दिक्कत होती है। प्रदूषण फैलता है’। फिर क्या था, मां – बेटी के बीच सवाल-जवाब का सिलसिला चल पड़ा। बेटी ने फिर से पूछा, ‘आखिर प्लास्टिक क्यों नहीं गलता मम्मा?’
बेटी के इस एक सवाल ने दुर्गेश को सोचने पर मजबूर कर दिया की आखिर कैसे दो साल के बच्चे को प्लास्टिक क्यों नहीं गलता ये समझाया जाए?
फिर दुर्गेश ने वही किया जो बाकी लोग करते हैं। गूगल का सहारा लिया, कई रातों की नींद खराब की ये पता लगाने के लिए कि आखिर प्लास्टिक क्यों नहीं गलता। उन्होंने लारेन सिंगर का ब्लाग पढ़ा और ‘जीरो वेस्ट’ के कान्सेप्ट को अपनाने का फैसला किया।
लारेन सिंगर, पर्यावरण के लिए काम करने के लिए जानी जाती है। वो ‘जीरो वेस्ट’ पर अपने पाठकों को जागरुक करती हैं और अपनी जीवन शैली में अपनाने के लिए प्रेरित भी करती हैं। बस फिर क्या था, उसी दिन से दुर्गेश के जीवन में बड़ा बदलाव किया। ये बदलाव कुछ यूं थेः-
-दुर्गेश का पूरा परिवार अब दो समय कच्ची सब्जियां और फल खाने में खाते हैं। -बाहर से खाना कभी नहीं मंगाते। -प्लास्टिक के पैकेट का दूध इस्तेमाल नहीं करते। घर पर ही ग्वाला आता है और दूध दे जाता है। -अपनी छोटी बेटी के लिए डायपर का इस्तेमाल तक नहीं करती, कपड़े के डायपर का इस्तेमाल करती है। -दुर्गेश खुद सेनिटेरी पैड का इस्तेमाल नहीं करती। अब वो कप का इस्तेमाल करने लगी है। -पति और बेटी का टिफिन भी वो फायल में पैक कर नहीं देती। सिर्फ बर्तन का इस्तेमाल करती है।
क्या हैं समस्याएं?
इतना सब करने के बाद भी कुछ कूड़ा घर पर हो ही जाता है। वो कौन सी चीज है जो उन्हें पूरी तरह अब भी ‘जीरो वेस्ट’ बनने नहीं दे रही?
इस सवाल के जवाब में वो बड़ी से सादगी से कहतीं हैं, ‘घर पर मिलने के लिए आने वाले मेहमान बच्चों के लिए चिप्स का पैकेट और चाकलेट लेकर आते हैं। उनका क्या करूं ये समझ में नहीं आता। रिसाइकल करने वाले भी इतनी छोटी-छोटी लेने से मना कर देते हैं।’
फिर वो उनका क्या करती हैं?
दुर्गेश इसे अपने लिए सही मानती हैं। उनके मुताबिक अमूमन वो ऐसे गिफ्ट लेने से मना कर देती हैं। लेकिन जहां मुमकिन नहीं होता वहां गिफ्ट के साथ-साथ उसके रैपर को भी संभाल कर रखती है।
मिनिमिलाइजेशन
अब वो कोई भी चीज खरीदती हैं तो उसके पहले 10 बार सोचती हैं – क्या वाकई में उस चीज की जरूरत है। चाहे वो बच्ची के लिए खिलौने हो या फिर घर के लिए कोई सामान। इसे साइंस में ‘मिनिमिलाइजेशन’ कहते हैं।
उनके मुताबिक तीन साल पहले उनके घर से एक थैला कूड़ा रोज निकलता था। लेकिन आज सालभर में एक थैला कूड़ा निकलता है।
तीन साल में जिंगदी ऐसे बदल गई
एक सवाल जो दुर्गेश से पूछना बनता है, वह यह कि आखिर घर से निकलने वाले किचन के कूड़े का वो क्या करती हैं? जैसे सब्जी, फल, चायपत्ति। इस सवाल पर वो घर में पड़े टैराकोटा के बर्तन की फोटो दिखाती है। घर के किचन से निकलने वाले सब्जी, फल, चायपत्ति को उन्हीं बरतन में डाल कर गलने छोड़ देती हैं। उन्हें सुखाती हैं और फिर पीस कर खाद बना देती हैं। वो अपने घर पर पौधे नहीं रखतीं इसलिए ऐसे बना हुआ खाद पड़ोसियों को बांट देती है।
जानी मानी पर्यावरणविद् और सेंटर फार साइंस एंड एंवायरमेंट की अध्यक्ष सुनीता नारायण ने भारतीयों के हर घर से निकलने वाले कचड़े पर एक किताब लिखी है – ‘नष्ट इन मई बैकयार्ड’।
इस किताब के मुताबिक हर घर से रोजाना 100 ग्राम के आसपास का प्लास्टिक कचड़ा निकलता है। यानी महीने में तकरीबन 3 किलो और साल में तकरीबन 10 किलो के आसपास प्लास्टिक कचड़ा देश के हर घर से निकलता है। लेकिन हर घर दुर्गेश वाली जीरो वेस्ट की तकनीक अपना लें तो देश की एक बड़ी समस्या से निजात मिल सकती है।
सेंटर फार साइंस एंड एंवायरमेंट के च्रंदभूषण के मुताबिक, ‘जीरो वेस्ट वाला घर बनाना मुश्किल नहीं है। उसके लिए बस निश्चय करने की देर है। इससे केवल प्लास्टिक, प्रदूषण और जानवरों की मौत की समस्या नहीं सुलझेगी। इससे लैंडफिल साइट और नालों के ओवर फ्लो होने की भी समस्या सुलझेगी।’
उनके मुताबिक प्लास्टिक पर पाबंदी समस्या का हल नहीं है। ये जल्दबाजी में लिया गया कदम है। ‘जीरो वेस्ट’ अपनाना इस समस्या से लड़ने का सबसे असरदार तरीका है।
सरोज सिंह
500 किलो प्लास्टिक से 400 लीटर ईंधन
प्लास्टिक कचरे से पेट्रोल बनाने की कोशिश कोई नई बात नहीं है, लेकिन शायद ही कोई ऐसी तकनीक ईजाद हो पाई हो जिसका व्यावसायिक इस्तेमाल संभव हो सका हो। लेकिन हैदराबाद के एक मैकेनिकल इंजीनियर सतीश कुमार ने इसे संभव कर दिखाया है।
प्लास्टिक कचरे को पूरी तरह नष्ट में सैकड़ों साल लगते हैं और हालत ये है कि ये बहकर समंदरों में पहुंच रहे हैं और इकट्ठा हो रहे हैं। भारत सरकार की 2015 में आई रिपोर्ट के मुताबिक यहां के 60 शहर प्रतिदिन 3,501 टन प्लास्टिक कचरा पैदा करते हैं।
हैदराबाद भी इन्हीं में से एक है जहां प्रतिदिन 200 टन प्लास्टिक कचरा पैदा होता है। इनका निस्तारण एक बड़ी समस्या है। असल में प्लास्टिक को रिसाइकिल किया जा सकता है, लेकिन छह बार रिसाइकिलिंग के बाद इसकी रिसाइकिलिंग सीमा समाप्त हो जाती है। इसके बाद बचा हुए हिस्सा किसी काम का नहीं रह जाता। लेकिन एक मकैनेकिल इंजीनियर ने एक ऐसी तकनीक इजाद की है जिससे इस बेकार जिसे डेड प्लास्टिक कहते हैं, उसका भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
हर महीने 15 टन प्लास्टिक का निस्तारण
हाइड्राक्सी सिस्टम्स एंड रिसर्च के संस्थापक सतीश कुमार कहते हैं, ‘जब ये आइडिया आया तो मैंने इस पर रिसर्च किया। आइडिया ये था कि उन प्लास्टिक कचरे, जिनका आगे इस्तेमाल संभव नहीं है और ऐसे प्लास्टिक का जिन्हें रिसाइकिल नहीं किया जा सकता, इस्तेमाल किया जाए। इस प्रक्रिया में हम बचे हुए प्लास्टिक कचरे को लेते हैं और इनको विशेष प्रक्रिया से गुजारते हैं, जिससे हमें सिंथेटिक डीजल, सिंथेटिक पेट्रोल, हवाई जहाजों के सिंथेटिक ईंधन, पेट्रो केक और यहां तक कि पेट्रोलियम गैस भी प्राप्त होती है। जिन प्लास्टिक कचरे को हम बेकार समझते हैं वो हमें ये उत्पाद देता है।’
सतीश ने इस कचरे को अन्य चीजों के साथ वैक्यूम चौंबर में डाला और इसे 350 से 400 डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया। इस प्रक्रिया में आम तौर पर 500 किलोग्राम प्लास्टिक से 400 लीटर ईंधन प्राप्त होता है। उनका दावा है कि इससे 200 से 240 लीटर डीजल, 80 से 100 लीटर हवाई जहाज के ईंधन, 60 लीटर पेट्रोल और 20 लीटर अन्य पदार्थ होता है। सतीश कहते हैं कि वो हर महीने 15 टन प्लास्टिक का इस तरह निस्तारण करते हैं।
यूनिवर्सिटी कालेज आफ टेक्नोलाजी हैदराबाद में केमिकल इंजीनियरिंग के प्रिंसिपल प्रोफेसर आर श्याम सुंदर कहते हैं, ‘ये बहुत अच्छी और पर्यावरण के अनुकूल तकनीक है। इस प्रक्रिया से कोई भी हानिकारक सामग्री बाहर नहीं जाती है। इसमें हर चीज दूसरे में तब्दील हो जाती है। और शेष जो कुछ बचता है उसका भी एक अलग इस्तेमाल है।’
कितना व्यावहारिक
लेकिन अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि इस प्रक्रिया में बहुत अधिक ऊर्जा खर्च होती है और इसमें बड़ी मात्रा में ग्रीन हाउस गैसें भी निकलती हैं। तेलंगाना सरकार को इस तकनीक में संभावना दिखती है।
नेशनल इंस्टीट्यूट फार माइक्रो, स्माल एंड मीडियम एंटरप्राइजेज से जुड़े डॉ. दिव्येंदु चौधरी कहते हैं, ‘इस तकनीक पर हमने विचार किया है और हमें लगता है कि इसका व्यावसायिक इस्तेमाल हो सकता है। आज के दौर में जब समाज में प्लास्टिक एक बड़ा सिरदर्द बन गया है इससे एक सामाजिक जागरूकता का भी बोध जुड़ा हुआ है। इसलिए अगर हम इसे प्रभावी तौर पर ईंधन में बदलते हैं तो ये समाज के लिए बहुत मायने रखता है।’
सतीश अपनी कार में खुद का बनाया हुआ पेट्रोल ही इस्तेमाल करते हैं। लेकिन जबतक हम प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम नहीं करते, ये समस्या बहुत हद तक हल नहीं होने जा रही।
40 साल से लगा रहे पेड़ : पीपल बाबा
आज आक्सीजन की कमी के चलते लोगों की जान जा रही है। उत्तराखंड में ग्लेशियर टूट रहे हैं, दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषित हवा में कई बार सांस लेना कठिन होने लगा है। लेकिन अब जाकर हमने ऑक्सीजन, प्रकृति और पेड़ों के बारे में सोचना शुरू किया है। वर्ना सालों से ग्लोबल वार्मिंग जैसी विकराल समस्या हमें धीरे-धीरे हमें मौत के मुंह में ढकेल रही है। ये कहना है 40 साल से ज्यादा समय से पेड़ लगाने की मुहिम चला रहे, आजाद जैन उर्फ पीपल बाबा का। वह अपने स्वयंसेवियों के साथ अब तक देश के अलग-अलग हिस्सों में लाखों पौधे लगाने का दावा करते हैं। इनमें ज्यादातर पीपल के पेड़ हैं, क्योंकि इसे आक्सीजन का स्रोत माना जाता है।
वह कहते हैं, ‘बचपन में नानी-दादी और मेरी क्लास टीचर मिसेज विलियम्स कहती थीं कि जब भी दुख में हो तो पेड़ों के नीचे बैठ जाओ। ऐसा करते हुए मुझे एक चीज समझ आ गई कि पेड़ हमारे परिवार हैं। फिर मेरी नानी ने एक दिन कहा कि कोई ऐसा काम करो जिसका असर हजार साल तक रहे। इस बात ने मेरे मन में गहरा असर किया। इसके बाद मैंने पेड़ लगाने को ही अपना जीवन बना लिया।’
साल 1966 में चंडीगढ़ में जन्में आजाद जैन के पिता फौज में डाक्टर थे। पिता की नौकरी के साथ आजाद को भी देश के कई हिस्सों में घूमने का मौका मिला। उन्होंने अपना पोस्ट ग्रेजुएशन पुणे से किया। पढ़ाई के दौरान ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगे और बचे वक्त में योगा कराते। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पर्यावरण के क्षेत्र में आगे बढ़ने कोशिश की। लेकिन उन्हें कोई ऐसी नौकरी नहीं मिली। 26 जनवरी 1977 से उन्होंने स्वतः पेड़ लगाने की मुहिम छेड़ दी। तब उन्हें लगा कि मुहिम की शुरुआत राजस्थान से करनी चाहिए क्योंकि वहां का ट्री-कवर कम है।
जब उन्होंने पेड़ लगाना शुरू किया तो पाया कि पेड़ बिना देखरेख के सूख जा रहे हैं, या कोई यों ही उन्हें उखाड़ दे रहा है। कुछ पेड़ बड़े हुए फिर लोगों ने काट दिए। तब वे अकेले अपने मिशन पर थे। तभी उन्होंने पीपल का सहारा लिया। पीपल भारतीय संस्कृति और धर्म से जुड़ा हुआ है। पीपल लगाने के बाद लोग खुद ही इसका ध्यान रखते थे। इसके बाद उन्होंने तेजी से पीपल लगाने शुरू कर दिए। उसी दौर में एक कार्यक्रम में वो बोलने गए थे तो किसी ने उन्हें पीपल बाबा कहकर पुकारा और यही उनका नाम पड़ गया।
शहरी वन का कान्सेप्ट प्रशासनिक अधिकारियों को भी पसंद आया, तब अभियान तेजी से बढ़ा। पीपल बाबा बताते हैं, ‘अभियान के शुरुआती दिनों में हम किसी शहर या गांव में पेड़ लगाने जाते थे तो लोग मेरा मजाक उड़ाते कि पढ़-लिखकर ये कैसा काम कर रहे हैं। कभी-कभी विचलित भी हो जाता था, लेकिन जो पेड़ लगाए थे, उनको बड़ा होते देखता था तो फिर आगे बढ़ने का मन होता था। बाद में मेरी मुलाकात माइक पाण्डेय से हुई। हमने एक गांव में ट्रीज ट्रस्ट बनाया। इसमें लोगों को लाइफ टाइम मेंबर बनाने लगे। इससे स्वयंसेवियों का एक बड़ा ग्रुप तैयार हो गया।
इसके बाद हमने शहर में जंगल लगाने का अभियान शुरू किया। ये प्रशासनिक अधिकारियों को पसंद आया और कई जिलों में जंगल विकसित करने के लिए जमीन मिलने लगीं। बाद में कार्पोरेट हाउसेज की ओर से भी हमें बुलाकर प्लांटेशन के काम सौंपे जाने लगे। बताते हैं कि अब तक उन्होंने 100 से ज्यादा प्लांटेशन साइट डेवलप कर ली है। दिल्ली में अरण्या वन प्रोजेक्टस में 16,000 पेड़, नोएडा में अटल उदय उपवन के नाम से 62200 पौधों का वन, ग्रेटर नोएडा में 2 लाख पौधों के वन और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के रहीमबाद में 3.5 लाख पौधों के वन तैयार किए जा रहे हैं। धौलाधर की पहाड़ियों में पेड़ लगाने की मुहिम जारी है।
पीपल बाबा और उनकी टीम के अनुसार फिलहाल वे सेना, अर्धसैनिक बलों, सैन्य स्टेशनों, स्कूलों कालेजों, विश्वविद्यालयों के परिसरों में पेड़ लगाते हैं। इसके अलावा सामाजिक और धार्मिक संगठनों, आश्रमों, मंदिरों, गुरुद्वारों आदि के साथ मिलकर पेड़ लगाने का काम करते हैं। कोरोना काल में भी उनका पेड़ लगाने का काम जारी रहा। सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए, गौतम बुद्ध नगर के तत्कालीन जिलाधिकारी बीएन सिंह की अनुमति से 15 एकड़ जमीन को जंगल बनाया जाता रहा।
जन्मदिन को बनाया हरियाली दिवस कान्सेप्ट
पीपल बाबा बताते हैं कि जन्मदिन को हरियाली दिवस के रूप में मनाकर पेड़ लगाने के कान्सेप्ट को टीवी का लोकप्रिय चेहरा ऋचा अनिरुद्ध, फिल्म अभिनेता जान अब्राहम, अल्पसंख्यक आयोग के उपाध्यक्ष आतिफ रसीद, वन्य कर्मी माइक पाण्डेय और लखनऊ के मेयर संयुक्ता भाटिया का समर्थन मिला।
अंग्रेजी की एक चर्चित कहावत है, म्ंबी वदम चसंदज वदम, यानी इंसान को अपने जीवनकाल में कम से कम एक पेड़ जरूर लगाना चाहिए। अगर सभी लोग पेड़ लगाएंगे और हमारी धरती पर उतने पेड़ हो जाएंगे जितने लोग हैं तो इससे पर्यावरण में स्थायित्व आएगा। प्रदूषण, ओजोन समस्या और ग्लोबल वार्मिंग से अपने आप निजात मिल जाएगी। केवल भारत में हर साल 1 अरब 35 करोड़ पेड़ बढ़ जाएंगे।
पेड़ लगाने के लिए ट्रेनिंग कैंप
आजाद जैन के अनुसार अब तक 63 देशों के छात्रों और स्वयंसेवकों को वे पीपल के पेड़ का न केवल महत्व बता चुके हैं, बल्कि बकायदे पेड़ लगाने की ट्रेनिंग भी दी है। इसमें 6 सप्ताह रहकर ट्रेनिंग ली जा सकती है। इन ट्रेनिंग कैंप्स में वह पर्यावरण विज्ञान, वानिकी, बागवानी और कृषि सुधार की तकनीकी सिखाते हैं। साथ ही उनके कई स्वयंसेवक देश में घूम-घूमकर लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक कर रहे हैं। इनके स्वयंसेवक विनय कुमार साहू 2015 से ही साइकिल यात्रा के जरिए लोगों को जागरूक कर रहे हैं। अब पूरी रणनीति के साथ ट्रस्ट देशभर में पेड़ लगाने जा रहा है, रणनीति बनाने में बद्री सिंह अपनी भूमिका निभा रहे हैं।
हरियाणा में सबसे कम है ट्री-कवर
5 जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। अबकी पीपल बाबा इस अवसर पर हरियाली क्रांति का नारा देंगे। और अगले चार महीने तक देश के सबसे कम ट्री-कवर वाले राज्य हरियाणा में 40 हजार पेड़ लगाने और हर पेड़ के लिए एक स्वयंसेवक तय करने का अभियान चलाएंगे। उनके अनुसार देश की फाइलों में 20ः तक ट्री-कवर बताया जाता है, लेकिन गूगल के सेटेलाइट व्यू से पता चलता है कि यह 8ः तक गिर गया है। अगर हमने इसे 50ः तक नहीं पहुंचाया तो महामारियों से घिरते रहेंगे।
इस बात को उनके एक वाक्य से खत्म करते हैं, ‘पीपल का पेड़ बहुत विशाल होता है और उसकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। इसकी उम्र भी ज्यादा होती है। यह 22 घंटे से अधिक समय तक आक्सीजन देता है। पीपल के पेड़ में जल्दी कीड़े नहीं लगते। इसके पौधे आसानी से मिल जाते हैं। इसमें अधिक पानी भी नहीं लगता। ये जल्दी से नष्ट नहीं होता। पर्यावरण के लिहाज से ये संकट की घड़ी है। इससे मौजूदा आक्सीजन की समस्या तो सीधे तौर पर दूर नहीं होगी, लेकिन इसका स्घ्थाई उपाय यही है।’
प्रीति सिंह