आयुर्वेद मतानुसार रस, रसायन का उपयोग समय-समय पर करते रहना चाहिए। रसायन शरीर को बलिष्ठ बनाते हैं, रोगों से लड़ने की शक्ति देते हैं, वहीं आयु में वृद्धि कर निरोगी जीवन को सार्थक करते हैं। प्राचीन भारतीय सिद्धांत को अपनाकर वृद्धावस्था में स्वस्थ जीवन जिया जा सकता है।
आयुर्वेद के आठ अंगों में रसायन तंत्र एक महत्वपूर्ण शास्त्र है। संहिताकारों ने ‘‘अथता दीर्घ जीवतीयं अध्यायं व्याख्यास्यामः’’ का उल्लेख करते हुए आरोग्य जीवन, हितायु एवं लम्बी आयु (दीर्घजीवन) की कामना हेतु रसायन तंत्र की महत्ता स्वीकार की है।
बुढ़ापे में रसायन
रसायन चिकित्सा से जरावस्था (वृद्धावस्था) के प्रभावों का निरोध होता है तथा मन, बुद्धि एवं शरीर के विकास द्वारा व्याधि प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि होती है। रसायन तंत्र में वयःस्थापन, आयुवर्धक, मेधाजनन और रोगनिवारण प्रतिपाद्य विषयों की विवेचना की गई है।
यथा- दीर्घमायुः स्मृतिर्मेधा, आरोग्यं तरूणं वयः। प्रभावर्ण स्वरोदार्य देहेन्द्रिय बलप्रदम्।। वाक्सिद्धिं प्रणतिकान्तिं लभते ना रसायनात्। रसायनं च तज्ज्ञेयं यज्जरा व्याधिनाशनम्।। (चरक चि.अ)
अर्थात् जो द्रव्य शरीर के रस, रक्तादि समस्त धातुओं को बढ़ाकर शरीर की शक्ति एवं आयु को बढ़ाए उसे रसायन कहते हैं। शरीर की शक्ति बढ़ने से रोग का आक्रमण नहीं होने पाता एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि हो जाती है। इसलिए इसे जरा व्याधि नाशन या वयः स्थापन कहा गया है। शरीर की आभ्यन्तरिक शक्ति बढ़ाने तथा बाह्य विकारों का प्रतिरोध होने से रसायन सेवन से मनुष्य आजीवन शक्तिशाली और दीर्घायु होता है।
रसायन शब्द रस ़ आयन इन दो शब्दों से बना है। यथा ‘‘रसादीनां धातूनां आप्याय्नम्’’ अर्थात शरीर के प्रत्येक कोष का सम्यक पोषण करते हुए रस, रक्त, मांस, मेद आदि धातुओं की साम्यावस्था बनाए रखना मुख्य है।
यथा- धातु साम्य क्रियाप्रोक्ता तन्त्रस्यास्य प्रयोजनम्।। (चरक)
रसायन चिकित्सा
रसायन द्रव्यों का महत्व एवं चिकित्सा से लाभ रसायन द्रव्यों एवं औषध योगों का विधिपूर्वक सेवन से मनुष्य दीर्घायु होता है एवं स्मरण शक्ति, आरोग्य प्रभा की वृद्धि होती है। वर्ण (गौर या कृष्ण), स्वर (वाणी का उदार होना), देह एवं इन्द्रियों को उत्तम बल की प्राप्ति वाक्सिद्धि (मनुष्य जो कहे वह सत्य सिद्ध हो), प्रणति (नम्रता) एवं कान्ति में सुन्दरता गुणों की प्राप्ति रसायन सेवन से होती है। उत्तम रसादि धातुओं को प्राप्त करने का जो उपाय हो, उसे रसायन कहते हैं।
यथा- ‘‘स्वास्थ्यस्योजस्करं यत्तु वृष्यं तद्रसायनम’’ (चरक)
जिस प्राकार देवताओं के लिए अमृत और नागों के लिए सुधा है, उसी प्रकार प्राचीन काल से मनुष्यों के लिए रसायन विधि का सेवन करने का विधान हैं। रसायन द्रव्यों का विधिवत सेवन करने से न वृद्धावस्था न दुर्बलता न रोगावस्था होती है, अपितु मनुष्य पूर्ण अवस्था को प्राप्त कर सद्गति को प्राप्त करता है।
यथा- ‘‘न जरां न च दौर्बल्यं नातुर्यं निधनं न च। जग्मुवर्ष सहस्त्राणि रसायन परा पुराः।।
रसायन सेवन से आरोग्य के साथ-साथ आयु की वृद्धि होती है, निन्द्रा, तन्द्रा, आलस्य और दुर्बलता दूर होती हैं। वात, पित्त एवं कफ साम्यावस्था में रहते हैं। जठराग्नि दीप्त रहती है तथा शरीर की कान्ति, वर्ण (रंग) और स्वर (वाणी) उत्तम रहती है।
रसायन सेवन विधि
रसायन सेवन के संदर्भ में चरक एवं सुश्रुत आदि संहिताओं में कतिपय विधियों का वर्णन मिलता है, जिनमें शास्त्र सम्मत निम्न तीन विधियाॅं मुख्य हैं। (1) वातातपिक विधि (2) कुटीप्रावेशिक विधि (3) द्रोणी प्रावेशिक विधि
इन तीन विधियों में से आजकल वातातपिक एवं कुटी प्रावेशिक विधियों का प्रयोग किया जाता है। महर्षि चरक ने कुटी प्रावेशिक विधि को श्रेष्ठ बताया है, विस्तार भय से विस्तृत रूप से उल्लेख करना सम्भव नहीं है।
‘‘रसायनानां द्विविधं प्रयोगंमृषयों विदु। कुटी प्रावेशिकं चैच वातातपिकमेव च।।’’
वातातपिक विधि से रसायन सेवन से बाहर से वायु, धूप, आहार-विहार नियमों का पालन करते हुए रसायन औषधियों का प्रयोग किया जाता है। रसायन में काम्य रसायन, नैमित्तिक रसायन, आजस्त्रिक रसायन एवं आचार रसायन का उल्लेख मिलता है। इनकी उपादेयता निम्न प्रकार से हैः-
काम्य रसायन
बल, बुद्धि एवं आयु को बढ़ाने की कामना से सेवन किए जाने वाले द्रव्य काम्य रसायन की श्रेणी में आते हैं। इसके अंतर्गत् प्राण कामनीय एवं मेधा कामनीय रसायन आते हैं।
(क) प्राण कामनीय रसायन: यह आयु के लिए हितकर (आयु बढ़ाने वाला) है। निद्रा, तन्द्रा, श्रम, आलस्य और दुर्बलता को दूर करने वाला है। यह प्रभा, वर्ण और स्वर को उत्तम बनाता है।
(ख) मेधा कामनीय रसायन: इसमें घी, धृति, स्मृति एवं मेधा शक्ति का विकास किया जाता है। इस विधि द्वारा शरीर के सौंदर्य का संवर्धन कर के वर्ण (रंग का निखार) किया जाता है तथा तेज और ओज की वृद्धि भी मेधा कामनीय रसायन में किया जाता है।
नैमित्तिक रसायन
किसी व्याधि विशेष को नष्ट करने के निमित्त शिलाजतु, भल्लातक आदि का सेवन नैमित्तिक रसायन कहलाता है। इसमें व्याधियों के शमन के उपरांत रसायन का प्रयोग कराया जाता है, ताकि शरीर की ऊर्जा, जीवनीय शक्ति और बल के ह्रास की आपूर्ति की जा सके।
आजस्त्रिक रसायन
इस रसायन के अंतर्गत् औषध और आहार की सुनिश्चित व्यवस्था होती है। इसमें घृत एवं गोदुग्ध का एक नियमित आजश्रयिक रसायन प्रभाव देखा जाता है। इस प्रकार का रसायन सेवन प्रत्येक व्यक्ति के लिए परम आवश्यक है।
रसायन सेवन करने वाले व्यक्ति के लिए निम्न चार नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक हैः-
(1) हिताशीस्यात (2) मिताशीस्यात (3) कालभोजी (4) जितेन्द्रिय
उपरोक्त चार नियमों का पालन करने पर रसायन चिकित्सा सार्थक हो सकती है। इन नियमों के पालन करने के साथ देह संशोधन की क्रिया अवश्य करनी चाहिए। देह संशोधन में आयुर्वेदिक पंचकर्म, वमन, विरेचन, वास्ति आदि विधियों द्वारा शरीर का संशोधन किए जाने पर रसायन औषधियों का प्रभाव विशेष कारगर है।
सुश्रुत संहिता में शीतल जल, दुग्ध, मधु और घृत का योग बताया गया है कि शीतल जल, दूध, मधु और घृत पृथक-पृथक दो-दो, तीन-तीन अथवा एक साथ सर्वप्रथम प्रातःकाल पीने से आयु में वृद्धि होती है।
‘‘श्ीतोदकं पयः क्षौद्रं सर्पिरित्येकशो द्विशः। त्रिशः समस्तमथवा प्राक पीतं स्थापयेद्वयः’’।। (सुश्रुत संहिता)
रसायन औषधियों के अनुसंधान के सम्बन्ध में केन्द्रीय आयुर्वेद एवं सिद्ध अनुसंधान परिषद एवं अन्य कतिपय संस्थाएॅं चिकित्सा परक अनुसंधान कार्य में संलग्न हैं। यहां चरकोक्त मेध्य रसायन में उपयोगी वनौषधि द्रव्यों की संक्षिप्त जानकारी एवं उनकी कार्मुकता के विषय में जानकारी तालिका में दी गई है।
यथा- मण्डूकपण्र्याः स्वरसः प्रयोज्यः क्षीरेण यष्टीमधुकस्य चूर्णम। रसो गुडूच्यास्तु समूलपुष्प्याः कल्कः प्रयोज्यः खलुः शंखपुष्पी।। आयुः प्रदान्यामयनाशनानि बलाग्निवर्ण सवर वर्ध नानि। मेध्यानि चैतानि रसायनानि मेध्या विशेषेण चशंखपुष्पी।।
चार मेध्य रसायन
मण्डूकपर्णी का स्वरस, मुलैठी का चूर्ण दुग्ध से, गुडूची का स्वरस, मूल, फल समेत शंख पुष्पी का कल्क सेवन करना चाहिए। यह चार रसायन आयु को बढ़ाने वाले, रोगों को नाश करने वाले, बल, अग्नि, वर्ण और स्वर को बढ़ाने वाले और विशेष रूप से यह चारों रसायन मेध्य को बढ़ाने वाले होते हैं।
मेध्य रसायन द्रव्य
वर्तमान समय से मेध्य औषधियों का बहुत अधिक महत्व है। आजकल व्यक्ति इतना अधिक तनावग्रस्त रहता है, जिसके कारण नाड़ी जन्य रोगियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है।
मेध्य अर्थात् ‘‘मेधायैहितम् मेध्यम’’ अर्थात् मेधा के लिए हितकर द्रव्यों को मेध्य कहते हैं। नाड़ी संस्थान मनुष्य का प्रमुख तंत्र है। शरीर के समस्त अवयवों का संचालन यहीं से होता है। नाड़ी संस्थान का सम्बन्ध मुख्य रूप से मस्तिष्क से रहता है। आयुर्वेद में मन के अनेक कर्मों का वर्णन किया गया है जैसे मेध्य, संज्ञास्थापन आदि। मेध्यकर्म यद्यपि मन से संबंधित हैं, तथापि नाड़ी संस्थान मन कर्मों का विशिष्ट अधिष्ठान होने से वहाॅं मन विशेष रूप से रहता है। अतः यह कर्म नाड़ी संस्थान से संबंधित माना गया है। विशेषतः इसका सम्बन्ध मस्तिष्क के उच्च केन्द्रों से है। अतः मेध्य औषधियों को नाड़ी बल्य भी कहते हैं।
प्रायः देखने में आता है कि मनुष्य अक्सर कहता है कि वह कार्य भूल जाता है। वस्तुतः यदि मनुष्य अपने मन की चंचलता के कारण यदि विषय को एकाग्रचित्त होकर ठीक प्रकार से नहीं देखता-सुनता है तो वह निश्चित रूप से विषय को भूल जाएगा।
मनुष्य का मन कितना स्थिर है, यह उसकी अपनी प्रकृति पर निर्भर करता है। यथाः वातिक प्रकृति वाले मनुष्य का मन अधिक चंचल होता है। अतः वह हर कार्य में शीघ्रता करता है, जबकि कफज प्रकृति में गंभीरता रहती है। वह अपने विषय में प्रकृति के कारण एकाग्रचित्त रहता है। अतः वह अपने विषय को इतनी शीघ्रता से नहीं भूलता। इसे ही धारण शक्ति कहते हैं।
शास्त्रों में शारीरिक प्रकृतियों की तरह मानसिक गुणों का भी वर्णन प्राप्त होता है। यथा सत्व, रज व तम। सत्व गुण भूयिष्ठ मनुष्य बुद्धिमान, सात्विक प्रकृति वाला होता है। उसकी इन्द्रियाॅं उसके नियंत्रण में रहती हैं, मन चंचल नहीं रहता। वस्तुतः सत्व को ही बुद्धि कहते हैं, अर्थात् सात्विक गुण प्रधान पुरूष तीव्र बुद्धि वाले होते हैं। रजोगुण भूयिष्ठ पुरूष प्रायशः पित्त प्रधान होते हैं। कफ के प्राकृत कर्मों में धारण एवं स्थिरता का वर्णन प्राप्त होता है। यथाः स्नेहो बन्धः स्थिरत्वं च गौरवं वृषता बलम्। क्षमा धृतिरलोभश्च कफ कर्माविकारजम्।।’’
उक्त सम्पूर्ण विवेचन से निम्न तथ्य स्पष्ट होते हैंः-
1. मेधा से ग्रहण शक्ति तथा स्मृति अभिप्रेत है। अर्थात् मेध्य द्रव्य इन तीनों को बढ़ाने वाले होते हैं तथापि कुछ द्रव्य स्मरण शक्ति को बढ़ाकर मेध्यकर्म करते हैं। यथा शीतवीर्य द्रव्य। शास्त्रों में मेध्य कर्म प्रभावजन्य माना है।
2. मन की चंचलता तथा मनुष्य के एकाग्रचित्त न रहने पर ग्रहण शक्ति तथा स्मृति प्रभावित होती है। ऐसी अवस्था में योग, साधना आदि के द्वारा मन को एकाग्र कर ग्रहण शक्ति एवं स्मृति को ठीक किया जाता है।
डाॅ. मायाराम उनियाल
के-16/बी, शताब्दी इनक्लेव, नियर हिलडन विहार, वरौला सै. 49, नोयडा जिला गौतमबुद्ध नगर (उ.प्र.) |